SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम शतक : उद्देशक - ९] क्रिया का अभाव ) समान की जाती है; (अर्थात् अप्रत्याख्यानजन्य कर्मबन्ध भी समान होता है ।) [ १५५ [प्र.] भगवन्! आप ऐसा किस हेतु से कहते हैं ? [उ.] गौतम ! ( इन चारों की) अविरति को लेकर, ऐसा कहा जाता है कि श्रेष्ठी और दरिद्र, कृपण (रंक) और राजा (क्षत्रिय) इन सबकी अप्रत्याख्यान क्रिया (प्रत्याख्यानक्रिया से विरति या तज्जन्यकर्मबन्धता) समान होती है। विवेचन—चारों में अप्रत्याख्यानक्रिया समान रूप से प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि चाहे कोई बड़ा नगरसेठ हो या दरिद्र, रंक हो या राजा, इन चारों में बाह्य असमानता होते हुए भी अविरति के कारण चारों को अप्रत्याख्यानक्रिया समानरूप से लगती है। अर्थात् सबको प्रत्याख्यानक्रिया के अभावरूप अप्रत्याख्यान (अविरति) क्रिया के कारण समान कर्मबन्ध होता है। वहाँ राजा-रंक आदि का कोई लिहाज नहीं होता । आधाकर्म एवं प्रासुक - एषणीयादि आहारसेवन का फल २६. आहाकम्मं णं भुंजमाणे समणे निग्गंथे किं बंधति ? किं पकरेति ? किं चिणाति ? किं उवचिणाति ? गोयमा ! आहाकम्मं णं भुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्पप्पगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ घणियबंधणबद्धाओ पकरेइ जाव अणुपरियट्टइ । सेकेणणं जाव अणुपरियट्टइ ? गोयमा ! आहाकम्मं णं भुंजमाणे आयाए धम्मं अतिक्कमति, आयाए धम्मं अतिक्कममाणे पुढविक्कायं णावकंखति जाव तसकायं णावकंखति, जेसिं पि य णं जीवाणं सरीराई आहारमाहारेइ ते वि जीवे नावकंखति । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ—आहाकम्मं णं भुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ जाव? अणुपरियट्टति । [२६ प्र.] भगवन्! आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ क्या बाँधता है ? क्या करता है ? किसका चय ( वृद्धि) करता है, और किसका उपचय करता है ? [२६ उ.] गौतम ! आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ आयुकर्म को छोड़कर शिथिलबन्धन से बन्धी हुई सात कर्मप्रकृतियों को दृढ़बन्धन से बन्धी हुई बना लेता है, यावत् संसार में बार-बार पर्यटन करता है । [प्र.] भगवन्! इसका क्या कारण है कि, यावत् - वह संसार में बार-बार पर्यटन करता है ! १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १०१ २. 'जाव' पद से - 'सिढिलबंधणबद्धाओ घणिय बंधणबद्धाओ पकरेइ, हस्सकालठितियाओ दीहकालठितियाओ पकरेइ, मंदाणुभावाओ तिव्वावणुभावाओ पकरेइ, अप्प पएसग्गाओ बहुपएसग्गाओ पकरेइ, आउयं च कम्मं यि बंध, सिय नो बंधइ, अस्सायावेदणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो भुज्जो उवचिणइ, अणाइयं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं, ... यहाँ तक का पाठ समझना।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy