SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन—पाश्र्वापत्यीय कालास्यवेषिपुत्र का स्थविरों द्वारा समाधान और हृदय-परिवर्तन प्रस्तुत चार सूत्रों में पार्श्वनाथ भगवान् के शिष्यानुशिष्य कालास्यवेषिपुत्र अनगार द्वारा भगवान् महावीर के श्रुतस्थविर शिष्यों से सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक और व्युत्सर्ग एवं इनके अर्थों के सम्बन्ध में की गई शंकाओं का समाधान एवं अन्त में कृतज्ञता-प्रकाशपूर्वक विनयसहित सप्रतिक्रमण पंचमहाव्रत धर्म के स्वीकार का वर्णन है। 'कट्ठसेज्जा' के तीन अर्थ —काष्ठशय्या, कष्टशय्या, अथवा अमनोज्ञवसति । स्थविरों के उत्तर का विश्लेषण स्थविरों का उत्तर निश्चयनय की दृष्टि से है। गुण और गुणी में तादात्म्य-अभेदसम्बन्ध होता है। इस दृष्टि से आत्मा (गुणी) और सामायिक (गुण) अभिन्न हैं। आत्मा को सामायिक आदि और सामायिक आदि का अर्थ कहना इस (निश्चय) दृष्टि से युक्तियुक्त है। व्यवहारनय की अपेक्षा से आत्मा और सामायिक आदि पृथक्-पृथक् होने से सामायिक आदि का अर्थ इस प्रकार होगा. सामायिक शत्रु-मित्र पर समभाव। प्रत्याख्यान नवकारसी, पौरसी आदि का नियम करना। संयम-पृथ्वीकायादि जीवों की यतना-रक्षा करना। संवर–पाँच इन्द्रियों तथा मन को वश में रखना। विवेक विशिष्ट बोध ज्ञान। व्युत्सर्ग शारीरिक हलन-चलन बन्द करके उस पर से ममत्व हटाना। इनका प्रयोजन सामायिक का अर्थ-नये कर्मों का बन्ध न करना, प्राचीन कर्मों की निर्जरा करना। प्रत्याख्यान का प्रयोजन आस्रवद्वारों को रोकना। संयम का प्रयोजन-आम्रवरहित होना । संवर का प्रयोजन इन्द्रियों और मन की प्रवृत्ति को रोक कर आस्रवरहित होना। विवेक का प्रयोजन हेय का त्याग, ज्ञेय का ज्ञान और उपादेय का ग्रहण करना। व्युत्सर्ग का प्रयोजन सभी प्रकार के संग से रहित हो जाना। गर्दा संयम कैसे ?–संयम में हेतुरूप होने तथा कर्मबन्ध में कारणरूप न होने से गर्दा संयम है। चारों में अप्रत्याख्यानक्रिया : समानरूप से २५. 'भंते!' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, २ एवं वदासी–से नूणं भंते! सेट्ठिस्स य तणुयस्स य किविणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ ? हंता, गोयमा! सेट्ठिस्स य जाव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ । से केणढे भंते ! ०? गोयमा! अविरतिं पडुच्च; से तेणढेणं गोयमा! एवं वुच्चइ सेट्ठिस्स य तणु० जाव कज्जइ। [२५ प्र.] 'भगवन्!' ऐसा कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार किया। तत्पश्चात् (वन्दन-नमस्कार करके) वे इस प्रकार बोले-भगवन् ! क्या श्रेष्ठी (स्वर्णपट्टविभूषित पगड़ी से युक्त पौरजननायक नगर सेठ, श्रीमन्त) और दरिद्र को, रंक को और क्षत्रिय (राजा) को अप्रत्याख्यान क्रिया (प्रत्याख्यानक्रिया का अभाव अथवा अप्रत्याख्यानजन्य कर्मबन्ध) समान होती है? [२५ उ.] हाँ, गौतम! श्रेष्ठी यावत् क्षत्रिय राजा (इन सब) के द्वारा अप्रत्याख्यान क्रिया (प्रत्याख्यान १. भगवतीसूत्र, अ.वृत्ति, पत्रांक १००
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy