SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कालास०! संजमट्ठयाए। [२१-५ प्र.] इस पर कालास्यवेषिपुत्र, अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछ।—'हे आर्यो! यदि आत्मा ही सामायिक है, आत्मा ही सामायिक का अर्थ है, और इसी प्रकार यावत् आत्मा ही व्युत्सर्ग है तथा आत्मा ही व्युत्सर्ग का अर्थ है, तो आप क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करके क्रोधादि की गर्दा निन्दा क्यों करते हैं ?' [२१-५ उ.] हे कालास्यवेषिपुत्र! हम संयम के लिए क्रोध आदि की गर्दा करते हैं। [६] से भंते! किं गरहा संजमे ? अगरहा संजमे ? कालास०! गरहा संजमे, नो अगरहा संजमे, गरहा वि य णं सव्वं दोसंपविणेति, सव्वं बालियं परिणाए एवं खुणे आया संजमे उवहिते भवति, एवं खुणे आया संजमे उवचिते भवति, एवं खुणे आया संजमे उवट्ठिते भवति। [२१-६ प्र.] तो 'हे भगवन्! क्या गर्दा (करना) संयम है या अगर्हा (करना) संयम है ?' . [२१-६ उ.] हे कालास्यवेषिपुत्र! गर्दा (पापों की निन्दा) संयम है, अगर्दा संयम नहीं है। गर्दा सब दोषों को दूर करती है—आत्मा समस्त मिथ्यात्व को जान कर गर्दा द्वारा दोषनिवारण करता है। इस प्रकार हमारी आत्मा संयम में पुष्ट होती है, और इसी प्रकार हमारी आत्मा संयम में उपस्थित होती है। २२. [१] एत्थ णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे संबुद्धे थेरे भगवंते वंदति णमंसति, २ एवं वयासी-एतेसि णं भंते! पदाणं पुट्विं अण्णाणयाए असवणयाए अबोहीए अणभिगमेणं अदिट्ठाणं अस्सुताणं अमुताणं अविण्णायाणं अव्वोगडाणं अव्वोच्छिन्नाणं अणिज्जूढाणं अणुवधारिताणं एतमढे णो सहिते, णो पत्तिए, णो रोइए। इदाणिं भंते! एतेसिं पदाणं जाणताए सवणताए बोहीए अभिगमेणं दिट्ठाणं सुताणं मुयाणं विण्णाताणं वोगडाणं वोच्छिन्नाणं णिज्जूढाणं उवधारिताणं एतमढं सदहामि, पत्तियामि, रोएमि। एवमेतं से जहेयं तुब्भे वदह। । [२२-१] (स्थविर भगवन्तों का उत्तर सुनकर) वह कालास्यवेषिपुत्र अनगार बोध को प्राप्त हुए और उन्होंने स्थविर भगवन्तों की वन्दना को, नमस्कार किया, वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा—'हे भगवन् ! इन (पूर्वोक्त) पदों को न जानने से, पहले सुने हुए न होने से, बोध न होने से अभिगम (ज्ञान) न होने से, दृष्ट न होने से, विचारित (सोचे हुए) न होने से, सुने हुए न होने से, विशेषरूप से न जानने से, कहे हुए न होने से, अनिर्णीत होने से, उद्धृत न होने से, और ये पद अवधारण किये हुए न होने से, इस अर्थ में श्रद्धा नहीं की थी, प्रतीति नहीं की थी, रुचि नहीं की थी; किन्तु भगवन् ! अब इन (पदों) को जान लेने से, सुन लेने से, बोध होने से, अभिगम होने से, दृष्ट होने से, चिन्तित (चिन्तन किये हुए) होने से, श्रुत (सुने हुए) होने से, विशेष जान लेने से, (आपके द्वारा) कथित होने से, निर्णीत होने से, उद्धृत होने से और इन पदों का अवधारण करने से इस अर्थ (कथन) पर मैं श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ; रुचि करता हूँ, हे भगवन्! आप जो यह कहते हैं, वह यथार्थ है, वह इसी प्रकार है।' [२] तए णं ते थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासी सद्दहाहि
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy