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________________ १२६] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र एक जीव, बहुत जीव, एवं नैरयिक से लेकर वैमानिक तक चौबीस दण्डकों की अपेक्षा से विग्रहगति और अविग्रहगति की प्राप्ति से संबंधित प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये गये हैं। विग्रहगति-अविग्रहगति की व्याख्या सामान्यतया विग्रह का अर्थ होता है—वक्र या मुड़ना, मोड़ खाना। जीव जब एक गति का आयुष्य समाप्त होने पर शरीर छोड़ कर दूसरा नया शरीर धारण करने हेतु दूसरी गति में जाते समय मार्ग (बाट) में गमन करता (बहता) है, तब उसकी गति दो प्रकार की हो सकती है-विग्रहगति और अविग्रहगति। कोई-कोई जीव जब एक, दो या तीन बार टेढ़ा-मेढ़ा मुड़कर उत्पत्तिस्थान पर पहुँचता है, तब उसकी वह गति विग्रहगति कहलाती है और जब कोई जीव मार्ग में बिना मुड़े (मोड़ खाए) सीधा अपने उत्पत्ति स्थान पर पहुँच जाता है तब उसकी उस गति को अविग्रहगति कहते हैं। यहाँ अविग्रहगति का अर्थ ऋजु सरल गति नहीं लिया गया है, किन्तु 'विग्रहगति का अभाव' अर्थ ही यहाँ संगत माना गया है। इस दृष्टि से 'अविग्रहगतिसमापन्न' का अर्थ होता है-विग्रहगति को अप्राप्त (नहीं पाया हुआ), चाहे जैसी स्थिति वाला—गतिवाला या गतिरहित जीव। अर्थात् जो जीव किसी भी गति में स्थित (ठहरा हुआ) है, उस अवस्था को प्राप्त जीव अविग्रहगतिसमापन्न है. और दसरी गति में जाते समय जो जीव मार्ग में गति करता है. उस अवस्था को प्राप्त जीव विग्रहगतिसमापन्न है। इस व्याख्या के अनुसार अविग्रहगतिसमापन्न में ऋजुगति वाले तथा भवस्थित सभी जीवों का समावेश हो जाता है; तथा नारकों में जो अविग्रहगतिसमापन्न वालों की बहुलता बताई है, वह कथन भी संगत हो जाता है, मगर अविग्रहगति का अर्थ केवल ऋजुगति करने से यह कथन नहीं होता। बहुत जीवों की अपेक्षा से जीव अनन्त हैं। इसलिए प्रतिसमय बहुत से जीव विग्रहगति- समापन्न भी होते हैं, और विग्रहगति के अभाव वाले भी होते हैं, जिन्हें शास्त्रीय भाषा में अविग्रहगति- समापन्न कहा गया है। इस दृष्टि से एकेन्द्रिय जीव बहुत होने से उनमें सदैव बहुत से विग्रहगति वाले भी पाए जाते हैं और बहुत से विग्रहगति के अभाव वाले भी। देव का च्यवनानन्तर आयुष्य प्रतिसंवेदन-निर्णय ९. देवे णं भंते! महिड्डिए महज्जुतीए महब्बले महायसे महेसक्खे महाणुभावे अविउक्कंतियं चयमाणे किंचि वि कालं हिरिवत्तियं दुगुंछावत्तियं परिस्सहवत्तियं आहारं नो आहारेति; अहे णं आहारेति, आहारिज्जमाणे आहारिए, परिणामिज्जमाणे परिणामिए, पहीणे य आउए भवइ, जत्थ उववज्जति तमाउयं पडिसंवेदेति, तं जहा–तिरिक्खजोणियाउयं वा मणुस्साउयं वा? हंता, गोयमा! देवेणं महिडीए जाव मणुस्साउगं वा। [९ प्र.] भगवन! महान ऋद्धि वाला. महान द्यति वाला. महान बल वाला. महायशस्वी. महाप्रभावशाली, (महासामर्थ्य सम्पन्न) मरणकाल में च्यवने वाला, महेश नामक देव (अथवा महाप्रभुत्वसम्पन्न या महासौख्यवान् देव) लज्जा के कारण, घृणा के कारण, परीषह के कारण कुछ समय तक आहार नहीं करता, फिर आहार करता है और ग्रहण किया हुआ आहार परिणत भी होता है। अन्त में उस देव की वहाँ की आयु सर्वथा नष्ट हो जाती है। इसलिए वह देव जहाँ उत्पन्न होता है, वहाँ १. (क) 'विग्रहो वक्रं तत्प्रधाना गतिर्विग्रहगतिः।'.....अविग्रहगतिसमापन्नस्तु ऋजुगतिकः, स्थितो वा। (ख) भगवतीसूत्र अ. टीका, पत्रांक ८५-८६. २. महासोक्खे (पाठान्तर).
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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