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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-६] [११९ ने जीवों को संगृहीत कर रखा है। विवेचन अष्टविध लोकस्थिति का सदृष्टान्त निरूपण प्रस्तुत सूत्र में लोकस्थिति के सम्बन्ध में श्री गौतम स्वामी द्वारा पूछे गए प्रश्न का भगवान् द्वारा दो दृष्टान्तों द्वारा दिया गया समाधान अंकित है। लोकस्थिति का प्रश्न और उसका यथार्थ समाधान-कई मतावलम्बी पृथ्वी को शेषनाग पर, शेषनाग कच्छप पर अथवा शेषनाग के फन पर टिकी हुई मानते हैं। कोई पृथ्वी को गाय के सींग पर टिकी हुई मानते हैं, कई दर्शनिक पृथ्वी को सत्य पर आधारित मानते हैं; इन सब मान्यताओं से लोकस्थिति का प्रश्न हल नहीं होता; इसीलिए श्री गौतम स्वामी ने यह प्रश्न उठाया है। भगवान् ने प्रत्यक्ष सिद्ध समाधान दिया है कि सर्वप्रथम आकाश स्वप्रतिष्ठित है। उस पर तनवात (पतली हवा). फिर घनवात (मोटी हवा), उस पर घनोदधि (जमा हुआ मोटा पानी) और उस पर यह पृथ्वी टिकी हुई है। पृथ्वी के टिकने की तथा पृथ्वी पर त्रस-स्थावर जीवों के रहने की बात प्रायिक एवं आपेक्षिक है। इस पृथ्वी के अतिरिक्त और भी मेरुपर्वत, आकाश, द्वीप, सागर, देवलोक, नरकादि क्षेत्र हैं, जहाँ जीव रहते कर्मों के आधार पर जीव-निश्चयनय की दृष्टि से जीव अपने ही आधार पर टिके हुए हैं, किन्तु व्यवहारदृष्टि से सकर्मक जीवों की अपेक्षा से यह कथन किया गया है। जीव कर्मों से यानी नारकादि भावों से प्रतिष्ठित अवस्थित हैं। जीव और पुद्गलों का सम्बन्ध २६.[१]अत्थि णं भंते! जीवा य पोग्गला य अन्नमन्नबद्धा अन्नमन्नपुट्ठा अन्नमनमोगाढा अन्नमन्नसिणेहपडिबद्धा अन्नमन्नघडत्ताए चिटुंति ? हंता, अत्थि। [२६-१ प्र.] भगवन्! क्या जीव और पुद्गल परस्पर सम्बद्ध हैं, परस्पर एक दूसरे से स्पृष्ट हैं?, परस्पर गाढ़ सम्बद्ध (मिले हुए) हैं, परस्पर स्निग्धता (चिकनाई) से प्रतिबद्ध (जुड़े हुए) हैं, (अथवा) परस्पर घट्टित (गाढ़) होकर रहे हुए हैं ? [२६-१ उ.] हाँ, गौतम! ये परस्पर इसी प्रकार रहे हुए हैं। [२] से केणद्वेणं भंते ! जाव चिटुंति ? गोयमा! से जहानामए हरदे सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे वोलट्टमाणे वोसट्टमाणे समभरघडत्ताए चिट्ठति, अहे णं केइ पुरिसे तंसि हरदंसि एगं महं नावं सदासवं सतछिड्डे ओगाहेज्जा। से नूणं गोतमा! सा णावा तेहिं आसवदारेहिं आपूरमाणी आपूरमाणी पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिट्ठति ? हंता, चिट्ठति। से तेणद्वेणं गोयमा ? अत्थि णं जीवा य जाव चिट्ठति । १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ८१-८२
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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