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________________ [ ११७ प्रथम शतक : उद्देशक - ६ ] (सर्वकाल) तक, यावत् हे रोह ! इसमें कोई पूर्वापर का क्रम नहीं होता । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर रोह अनगार तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । विवेचन—रोह अनगार के प्रश्न : भगवान् महावीर के उत्तर—— प्रस्तुत बारह सूत्रों (१३ से २४ तक) में लोक- अलोक, जीव- अजीव, भवसिद्धिक- अभवसिद्धिक, सिद्धि-असिद्धि, सिद्ध- संसारी, लोकान्त-अलोकान्त, अवकाशान्तर, तनुवात, धनवात, घनोदधि, सप्त पृथ्वी, द्वीप, सागर, वर्ष, नारकी, आदि चौबीस दण्डक के जीव, अस्तिकाय, समय, कर्म, लेश्या, दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, संज्ञा, शरीर, योग, उपयोग, द्रव्य प्रदेश और पर्याय तथा काल इसमें परस्पर पूर्वापर क्रम के संबंध में रोह अनगार द्वारा पूछे गए प्रश्न और श्रमण भगवान् महावीर द्वार प्रदत्त उत्तर अंकित हैं। इन प्रश्नों के उत्थान के कारण कई मतवादी लोक को बना हुआ, विशेषतः ईश्वर द्वारा रचित मानते हैं, इसी तरह कई लोक आदि को शून्य मानते हैं। जीव- अजीव दोनों को ईश्वरकृत मानते हैं, कई मतवादी जीवों को पंचमहाभूतों (जड़) से उत्पन्न मानते हैं, कई लोग संसार से सिद्ध मानते हैं, इसलिए कहते हैं—पहले संसार हुआ, उसके बाद सिद्धि या सिद्ध हुए । इसी प्रकार कई वर्तमान या भूतकाल को पहले और भविष्य को बाद में हुआ मानते हैं, इस प्रकार तीनों कालों को आदि मानते हैं। विभिन्न दार्शनिक चारों गति के जीवों की उत्पत्ति के संबंध में आगे-पीछे की कल्पना करते हैं। इन सब दृष्टियों के परिप्रेक्ष्य में रोह अनगार के मन में लोक- अलोक, जीव-अजीव आदि विभिन्न पदार्थों के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न हुई और भगवान् से उसके समाधानार्थ उन्होंने विभिन्न प्रश्न प्रस्तुत किये। भगवान् ने कहा—इन सबमें पहले पीछे के क्रम का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि ये सब शाश्वत और अनादिकालीन हैं। इन्हें किसी ने बनाया नहीं है। कर्म आदि का कर्ता आत्मा है किन्तु प्रवाह रूप से वे भी अनादि- सान्त हैं। तीनों ही काल द्रव्यदृष्टि से अनादि शाश्वत है, इनमें भी आगे पीछे का क्रम नहीं होता । अष्टविधलोकस्थिति का सदृष्टान्त-निरूपण २५. [ १ ] भंते त्ति भगवं गोतमे समणं जाव एवं वदासि कतिविहा णं भंते! लोयद्विती पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठविहा लोयट्ठिती पण्णत्ता । तं जहा— आगासपतिट्ठिते वाते १, वातपतिट्ठिते उदही २, उदहिपतिट्ठिता पुढवी ३, पुढवीपतिट्ठिता तस - थावार पाणा ४, अजीवा जीवपतिट्ठिता जीवा कम्मपतिट्ठिता ६, अजीवा जीवसंगहिता ७, जीवा कम्मसंगहिता ८ । ५, [२५ - १ प्र.] 'हे भगवन्' ! ऐसा कह कर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से यावत्... इस प्रकार कहा—— भगवन् ! लोक की स्थिति कितने प्रकार की कही गई है ? [२५-१ उ.] गौतम! लोक की स्थिति आठ प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है—आकाश १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ८१, ८२
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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