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प्रथम शतक : उद्देशक-५]
[९७ तृतीय-शरीरद्वार
१२. इमीसे णं भंते! रयण० जाव एगमेगंसि निरयावासंसि नेरतियाणं कति सरीरया . पण्णत्ता?
गोयमा! तिण्णि सरीरया पण्णत्ता। तं जहा-वेउव्विए तेयए कम्मए।
[१२ प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से एक-एक नारकावास में बसने वाले नारक जीवों के शरीर कितने हैं ?
[१२ उ.] गौतम! उनके तीन शरीर कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-वैक्रिय, तैजस और कार्मण। १३.[१] इमीसे णं भंते! जाव वेउव्वियसरीरे वट्टमाणा नेरतिया किं कोहोवउत्ता०? सत्तावीसं भंगा। [२] एतेणं गमेणं तिण्णि सरीरा भाणियव्वा।
[१३-१ प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से प्रत्येक नारकावास में बसने वाले वैक्रियशरीरी नारक क्या क्रोधोपयुक्त हैं, (मानोपयुक्त हैं,मायोपयुक्त हैं अथवा लोभोपयुक्त हैं ?)
[१३-१ उ.] गौतम! उनके क्रोधोपयुक्त आदि २७ भंग कहने चाहिए।
[१३-२] और इस प्रकार शेष दोनों शरीरों (तैजस और कार्मण) सहित तीनों के सम्बन्ध में यही बात (आलापक) कहनी चाहिए।
विवेचन-नारकों के क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक तृतीय शरीरद्वार-प्रस्तुत द्विसूत्री में नारकीय जीवों के तीन शरीर और उनसे सम्बन्धित क्रोधोपयुक्त आदि २७ भंगों का निरूपण है।
शरीर-शरीर नामकर्म के उदय से होने वाली वह रचना जिसमें आत्मा व्याप्त होकर रहती है, अथवा जिसका क्षण-क्षण नाश होता रहता है, उसे शरीर कहते हैं।
वैक्रियशरीर—जिस शरीर के प्रभाव से एक से अनेक शरीर, छोटा शरीर, बड़ा शरीर या मनचाहा रूप धारण किया जा सकता है, उसे वैक्रिय शरीर कहते हैं। इसके दो भेद हैं - भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। नारकों के भवधारणीय वैक्रिय शरीर होता है।
तैजसशरीर-आहार को पचाकर खलभाग और रसभाग में विभक्त करने और रस को शरीर के अंगों में यथास्थान पहुँचाने वाला शरीर तैजस कहलाता है।
कार्मणशरीर-रागद्वेषादि भावों से शुभाशुभ कर्मवर्गणा के पुद्गलों को संचित करने वाला कार्मण शरीर है। चौथा-संहननद्वार
१४. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए जाव नेरइयाणं सरीरगा किं संघयणा पण्णत्ता ?
गोयमा! छण्हं संघयणाणं असंघयणी, नेवऽट्ठी, नेव छिरा, नेव ण्हारूणि। जे पोग्गला अणिट्ठा अकंता अप्पिया असुभा अमणुण्णा अमणामा ते तेसिं सरीरसंघातत्ताए परिणमंति।
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ७२