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The text describes four types of Shukla Dhyana (meditation) in Jainism, outlining their increasing intensity from the perspective of Yoga:
(1) **Pṛthaktva-śruta-savicāra:** This meditation involves contemplation of the various aspects (paryāya) of a single substance (dravya) based on scriptural knowledge (śruta). The meditator shifts their focus between the meaning (artha), the word (śabda), and the physical postures (yoga), making it a "savicāra" (with thought) meditation.
(2) **Ekatva-śruta-avicāra:** This meditation, also based on scriptural knowledge, focuses on a single aspect (paryāya) without shifting between meaning, word, or posture. It is a "avicāra" (without thought) meditation. This type of meditation leads to the cessation of all passions (kaṣāya) and the destruction of the veils of knowledge (jñānāvaraṇa), perception (darśanāvaraṇa), delusion (mohaniya), and obstacles (antarāya), ultimately leading to the attainment of perfect knowledge (kevalajñāna) and perfect perception (kevaladarśana).
(3) **Sūkṣma-kriyā-pratipatti:** This meditation occurs when an Arhat (liberated soul) has only a very short lifespan remaining (less than a moment). To equalize the remaining karmas (actions), a process of "samudghāta" (equalization) takes place. This involves focusing on the subtle physical postures (sūkṣma kāya yoga) while suppressing the grosser mental (bādar mano yoga) and verbal (bādar vacana yoga) postures.
(4) **Utsanna-kriyā-pratipatti:** This meditation marks the cessation of even the subtle physical actions (sūkṣma kriyā) that remained in the previous stage. The Kevali (liberated soul) attains the state of "śaileśī" (supreme liberation) within the time it takes to pronounce five short vowels. They are completely liberated from all karmas.
After discussing the four types of meditation, the text mentions four types of "vikathā" (idle talk) that hinder spiritual progress. These are considered "āśrava" (influx) because they lead to the accumulation of karmas. Practitioners of "bhāṣāsamiti" (the practice of mindful speech) should avoid these types of talk.
The text also mentions that the Buddhist tradition also considers "vikathā" as "tiracchāna kathā" (unwholesome talk) and categorizes it into various types.
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शुक्लध्यान के (१) पृथक्त्व-श्रुत-सविचार (२) एकत्व श्रुत अविचार (३) सूक्ष्म क्रियाप्रतिपत्ति (४) उत्पन्न क्रियाप्रतिपत्ति, इन प्रकारों में योग की दृष्टि से एकाग्रता की तरतमता बतलाई गयी है।५९ मन, वचन, और काया का निरुन्धन एक साथ नहीं किया जाता। प्रथम दो प्रकार छद्मस्थ साधकों के लिए हैं और शेष दो प्रकार केवलज्ञानी के लिये ६०
इनका स्वरूप इस प्रकार है
(१) पृथक्त्वश्रुत सविचार-इस ध्यान में किसी एक द्रव्य में उत्पाद व्यय और ध्रौव्य आदि पर्यायों का चिन्तन श्रुत को आधार बनाकर किया जाता है। ध्याता कभी अर्थ का चिन्तन करता है, कभी शब्द का ि
चन और काय के योगों में संक्रमण करता रहता है। एक शब्द से दूसरे शब्द पर, एक योग से दूसरे योग पर जाने के कारण ही वह ध्यान "सविचार" कहलाता है।६१ (२) एकत्वश्रुत अविचार-श्रुत के आधार से अर्थ, व्यञ्जन, योग के संक्रमण से रहित एक पर्याय विषयक ध्यान। पहले ध्यान की तरह इसमें आलम्बन का परिवर्तन नहीं होता। एक ही पर्याय को ध्येय बनाया जाता है। इसमें समस्त कषाय शान्त हो जाते हैं और आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय को नष्ट कर केवलज्ञान, केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है।६२ (३) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपात्ति-तेरहवें गुणस्थानवर्ती-अरिहन्त की आयु यदि केवल अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रहती है और नाम, गोत्र, वेदनीय इन तीन कर्मों की स्थिति आयुकर्म से अधिक होती है, तब उन्हें समस्थितिक करने के लिए समुद्घात होता है। उससे आयुकर्म की स्थिति के बराबर सभी कर्मों की स्थिति हो जाती है। उसके पश्चात् बादर काययोग का आलम्बन लेकर बादर मनोयोग एवं बादर वचनयोग का निरोध किया जाता है। उसके पश्चात् सूक्ष्म काययोग का अवलम्बन लेकर बादर काययोग का निरोध किया जाता है। उसके बाद सूक्ष्मकाययोग का अवलम्बन और सूक्ष्मवचनयोग का निरोध किया जाता है। इस अवस्था में जो ध्यान प्रक्रिया होती है, वह शुक्लध्यान कहलाता है।६३ इस ध्यान में मनोयोग और वचनयोग का पूर्ण रूप से निरोध हो जाने पर भी सूक्ष्म काययोग की श्वासोच्छ्वास आदि क्रिया ही अवशेष रहती है। (४) उत्सन्न क्रियाप्रतिपात्ति-इस ध्यान में जो सूक्ष्म क्रियाएं अवशिष्ट थीं, वह भी निवृत्त हो जाती हैं। पाँच ह्रस्व स्वरों के उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने समय में केवली भगवान् शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं। अघातिया कर्मों को नष्ट कर पूर्ण रूप से मुक्त हो जाते हैं।६४
ध्यान के पश्चात् चार विकथाओं का उल्लेख है। संयम बाधक वार्तालाप विकथा है। धर्मकथा से निर्जरा होती है तो विकथा से कर्मबन्ध । इसलिये उसे आश्रव में स्थान दिया गया है। भाषासमिति के साधक को विकथा का वर्जन करना चाहिए।६५ जैन परम्परा में ही नहीं, बौद्ध परम्परा में भी विकथा को तिरच्छान कथा कहा है और उसके अनेक भेद बताये हैं -राजकथा, चोरकथा, महामात्यकथा, सेनाकथा, भयकथा, युद्धकथा, अन्नकथा, पानकथा,
स्थानांगसूत्र स्था. ४ ६०. ज्ञानार्णव-४२-१५-१६
क-योगशतक ११/५
ख-ध्यानशतक ७/७/७८ ६२. क-योगशास्त्र ११/१२ ख-ज्ञानार्णव ३९-२६
क-योगशास्त्र ११-५३ से ५५ ज्ञानार्णव ३९-४७, ४९ । क-उत्तराध्ययन,अ. ३४ गा. ९ ख-आवश्यकसूत्र अ. ४
६१.
६३. ६४.
६५.
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