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स्थानाङ्गसूत्रम्
३. कापोतलेश्या - मन्द अनुभाग वाले कृष्ण और नील वर्ण के उदय से सम्मिश्रणरूप कबूतर के वर्णसमान शरीर का वर्ण होना द्रव्य कापोतलेश्या है। जरा-जरा सी बातों पर रुष्ट होना, दूसरों की निन्दा करना, अपनी प्रशंसा करना, दूसरों का अपमान कर अपने को बड़ा बताना, दूसरों का विश्वास नहीं करना और भले-बुरे का विचार नहीं करना, ये सब भाव कापोतलेश्या के लक्षण हैं। इस लेश्या वाले के भाव फलवान् वृक्ष की छोटी-छोटी शाखाएँ काट कर फल खाने के होते हैं।
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४. तेजोलेश्या रक्तवर्ण नामकर्म के उदय से शरीर का लाल वर्ण होना द्रव्य तेजोलेश्या है । कर्तव्य, अकर्तव्य और भले-बुरे को जानना, दया, दान करना और मन्द कषाय रखते हुए सबको समान दृष्टि से देखना, ये सब भाव तेजोलेश्या के लक्षण हैं। इस लेश्या वाले के भाव फलों से लदी टहनियां तोड़कर फल खाने के होते हैं। यहां यह ज्ञातव्य है कि शास्त्रों में जिस शाप और अनुग्रह करने वाली तेजोलेश्या का उल्लेख आता है, वह वस्तुतः जलब्धि है, जो कि तपस्या की साधनाविशेष से किसी-किसी तपस्वी साधु को प्राप्त होती है।
५. पद्मलेश्या — पीत और रक्तनाम कर्म के उदय से दोनों वर्णों के मिश्रित मन्द उदय से गुलाबी कमल जैसा शरीर का वर्ण होना द्रव्य पद्मलेश्या है । भद्र परिणामी होना, साधुजनों को दान देना, उत्तम धार्मिक कार्य करना, अपराधी के अपराध क्षमा करना, व्रत- शीलादि का पालन करना, ये सब भाव पद्मलेश्या के लक्षण हैं । इस लेश्या वाले के भाव फलों के गुच्छे तोड़कर फल खाने के होते हैं ।
६. शुक्ललेश्या — श्वेत नामकर्म के उदय से शरीर का धवल वर्ण या गौर वर्ण होना द्रव्य शुक्ललेश्या है। किसी से राग-द्वेष नहीं करना, पक्षपात नहीं करना, सबमें समभाव रखना, व्रत, शील, संयमादि को पालना और निदान नहीं करना ये भाव शुक्ललेश्या के लक्षण हैं। इस लेश्या वाले के भाव नीचे स्वयं गिरे हुए फलों को खाने के . होते हैं ।
देवों और नारकों में तो भावलेश्या एक अवस्थित और जीवन पर्यन्त स्थायिनी होती है। किन्तु मनुष्यों और तिर्यंचों में छहों लेश्याएं अनवस्थित होती हैं और वे कषायों की तीव्रता - मन्दता के अनुसार अन्तर्मुहूर्त में बदलती रहती हैं।
प्रत्येक भावलेश्या के जघन्य अंश से लेकर उत्कृष्ट अंश तक असंख्यात भेद होते हैं । अतः स्थायी लेश्या वाले जीवों की वह लेश्या भी काषायिक भावों के अनुसार जघन्य से लेकर उत्कृष्ट अंश तक यथासम्भव बदलती रहती है।
'जल्लेस्से मरइ, तल्लेस्से उप्पज्जइ' इस नियम के अनुसार जो जीव जैसी लेश्या वाले परिणामों में मरता है, वैसी ही लेश्या वाले जीवों में उत्पन्न होता है।
उपर्युक्त छह लेश्याओं में से कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अशुभ लेश्याएं कही गई हैं तथा तेज, पद्म और _शुक्ल ये शुभ लेश्याएं मानी गई हैं।
प्रकृत लेश्यापद में जिन-जिन जीवों की जो-जो लेश्या समान होती है, उन उन जीवों की समानता की दृष्टि से एक वर्गणा कही गई है।