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________________ प्रथम स्थान मिच्छद्दिवियाणं तेइंदियाणं वग्गणा। १८३— एगा सम्मद्दिट्ठियाणं चउरिदियाणं वग्गणा। १८४- एगा मिच्छद्दिट्ठियाणं चउरिदियाणं वग्गणा]। १८५- सेसा जहा रइया जाव एगा सम्मामिच्छद्दिट्ठियाणं वेमाणियाणं वग्गणा। सम्यग्दृष्टि जीवों की वर्गणा एक है (१७०)। मिथ्यादृष्टि जीवों की वर्गणा एक है (१७१)। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों की वर्गणा एक है (१७२) । सम्यग्दृष्टि नारकीय जीवों की वर्गणा एक है (१७३)। मिथ्यादृष्टि नारकीय जीवों की वर्गणा एक है (१७४) । सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकीय जीवों की वर्गणा एक है (१७५) । इस प्रकार असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवों की वर्गणा एक-एक है (१७६)। पृथ्वीकायिक मिथ्यादृष्टि जीवों की वर्गणा एक है (१७७)। इसी प्रकार अप्कायिक जीवों से लेकर वनस्पतिकायिक तक के जीवों की वर्गणा एक-एक है (१७८)। सम्यग्दृष्टि द्वीन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है (१७९)। मिथ्यादृष्टि द्वीन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है (१८०)। सम्यग्दृष्टि त्रीन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है (१८१)। मिथ्यादृष्टि त्रीन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है (१८२)। सम्यग्दृष्टि चतुरिन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है (१८३)। मिथ्यादृष्टि चतुरिन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है (१८४)। सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि शेष दण्डकों (पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, मनुष्य, वाण-व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों) की वर्गणा एक-एक है (१८५)। विवेचन– सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन जिन जीवों के पाया जाता है, उन्हें सम्यग्दृष्टि कहते हैं। मिथ्यात्वकर्म का उदय जिनके होता है, वे मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। तथा सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) प्रकृति का उदय जिनके होता है, वे सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहे जाते हैं। यद्यपि सभी दण्डकों में इनका तर-तमभावगत भेद होता है, पर सामान्य की विवक्षा से उनकी एक वर्गणा कही गयी है। कृष्ण-शुक्लपाक्षिक-पद १८६- एगा कण्हपक्खियाणं वग्गणा। १८७- एगा सुक्कपक्खियाणं वग्गणा। १८८एगा कण्हपक्खियाणं णेरड्याणं वग्गणा। १८९– एगा सुक्कपक्खियाणं णेरइयाणं वग्गणा। १९०एवं— चउवीसदंडओ भाणियव्यो। कृष्णपाक्षिक जीवों की वर्गणा एक है (१८६)। शुक्लपाक्षिक जीवों की वर्गणा एक है (१८७)। कृष्णपाक्षिक नारकीय जीवों की वर्गणा एक है (१८८)। शुक्लपाक्षिक नारकीय जीवों की वर्गणा एक है (१८९)। इसी प्रकार शेष सभी कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक जीवों की वर्गणा एक-एक है, ऐसा कहना (जानना) चाहिए (१९०)। विवेचन-जिन जीवों का अपार्ध (देशोन या कुछ कम अर्ध) पुद्गल परावर्तन काल संसार में परिभ्रमण का शेष रहता है, उन्हें शुक्लपाक्षिक कहा जाता है और जिनका संसार-परिभ्रमण काल इससे अधिक होता है वे कृष्णपाक्षिक कहे जाते हैं। यद्यपि अपार्ध पुद्गल परावर्तन का काल भी बहुत लम्बा होता है, तथापि मुक्ति प्राप्त करने की काल-सीमा निश्चित हो जाने के कारण उस जीव को शुक्लपाक्षिक कहा जाता है, क्योंकि उसका भविष्य प्रकाशमय है। किन्तु जिनका समय अपार्ध पुद्गल परावर्तन से अधिक रहता है उनके अन्धकारमय भविष्य की कोई सीमा निश्चित नहीं होने के कारण उन्हें कृष्णपाक्षिक कहा जाता है।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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