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________________ १२ स्थानाङ्गसूत्रम् जीवों की वर्गणा एक है ( १५६) । द्वीन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है (१५७) । त्रीन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है (१५८) । चतुरिन्द्रिय जीवों की वर्गणा एक है (१५९) । पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों की वर्गणा एक है (१६०) । मनुष्यों की वर्गणा एक है (१६१) । वान - व्यन्तर देवों की वर्गणा एक है (१६२) । ज्योतिष्क देवों की वर्गणा एक है (१६३) । और वैमानिक देवों की वर्गणा एक है (१६४) । विवेचन — दण्डक का अर्थ यहाँ वाक्यपद्धति अथवा समानजातीय जीवों का वर्गीकरण करना है और वर्गणा समुदाय को कहते हैं । उक्त चौबीस दण्डकों में नारकी जीवों का एक दण्डक, भवनवासी देवों के दश दण्डक, स्थावरकायिक एकेन्द्रिय जीवों के पांच दण्डक, द्वीन्द्रियादि तिर्यंचों के चार दण्डक, मनुष्यों का एक दण्डक, व्यन्तरदेवों का एक दण्डक, ज्योतिष्क देवों का एक दण्डक और वैमानिक देवों का एक दण्डक । इ प्रकार सब चौबीस दण्डक होते हैं। प्रत्येक दण्डक की एक-एक वर्गणा होती । आगमों में संसारी जीवों का वर्णन इन चौवीस दण्डकों (वर्गों) के आश्रय से किया गया है। भव्य - अभव्यसिद्धिक-पद १६५ – एगा भवसिद्धियाणं वग्गणा । १६६ – एगा अभवसिद्धियाणं वग्गणा । १६७ –— एगा भवसिद्धियाणं रइयाणं वग्गणा । १६८ - एगा अभवसिद्धियाणं णेरइयाणं वग्गणा । १६९ – एवं जाव एगा भवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, एगा अभवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वग्गणा । भव्यसिद्धिक जीवों की वर्गणा एक है (१६५) । अभव्यसिद्धिक जीवों की वर्गणा एक है ( १६६) । भव्यसिद्धिक नारकीय जीवों की वर्गणा एक है ( १६७) । अभव्यसिद्धिक नारकीय जीवों की वर्गणा एक है (१६८ ) । इसी प्रकार भव्यसिद्धिक अभव्यसिद्धिक (असुरकुमारों से लेकर) वैमानिक देवों तक के सभी दण्डकों की वर्गणा एक-एक है (१६९) । विवेचन – संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं- भव्यसिद्धिक या भवसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक या अभवसिद्धिक। जिन जीवों में सिद्ध पद पाने की योग्यता होती है, वे भव्यसिद्धिक कहलाते हैं और जिनमें यह योग्यता नहीं होती है वे अभव्यसिद्धिक कहलाते हैं। यह भव्यपन और अभव्यपन किसी कर्म के निमित्त से नहीं, किन्तु स्वभाव से ही होता है, अतएव इसमें कभी परिवर्तन नहीं हो सकता । भव्यजीव कभी अभव्य नहीं बनता और अभव्य कभी भव्य नहीं हो सकता । दृष्टि- पद १७०—– एगा सम्मद्दिट्ठियाणं वग्गणा । १७९ – एगा मिच्छद्दिट्ठियाणं वग्गणा । १७२ — गा सम्मामिच्छद्दिट्ठियाणं वग्गणा । १७३ – एगा सम्महिट्ठियाणं णेरइयाणं वग्गणा । १७४ – एगा मिच्छद्दिट्ठियाणं णेरइयाणं वग्गणा । १७५ – एगा सम्मामिच्छद्दिट्ठियाणं णेरड्याणं वग्गणा । १७६— एवं जाव थणियकुमाराणं वग्गणा । १७७ – एगा मिच्छिद्दिट्ठियाणं पुढविक्काइयाणं वग्गणा । १७८एवं जाव वणस्सइकाइयाणं । १७९ – एगा सम्मद्दिट्ठियाणं बेइंदियाणं वग्गणा । १८० - एगा मिच्छद्दिट्टि - याणं बेइंदियाणं वग्गणा । १८१ - [ एगा सम्मद्दिट्ठियाणं तेइंदियाणं वग्गणा । १८२ – एगा १. पाठान्तर - सं.पा. -- एवं तेइंदियाणं वि चउरिंदियाणं वि ।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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