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स्थानाङ्गसूत्रम्
८. प्राग्भारदशा- इसमें शरीर झुर्रियों से व्याप्त हो जाता है। ९. उन्मुखीदशा— इसमें मनुष्य बुढापे से आक्रान्त हो मौत के सन्मुख हो जाता है।
१०. शायिनीदश— इसमें मनुष्य दुर्बल, दीनस्वर होकर शय्या पर पड़ा रहता है (१५४)। तृणवनस्पति-सूत्र
१५५- दसविधा तणवणस्सतिकाइया पण्णत्ता, तं जहा—मूले, कंदे, (खंधे, तया, साले, पवाले, पत्ते), पुप्फे, फले, बीये।
तृणवनस्पतिकायिक जीव दश प्रकार के कहे गये हैं, जैसे
१. मूल, २. कन्द, ३. स्कन्ध, ४. त्वक्, ५. शाखा, ६. प्रवाल, ७. पत्र, ८. पुष्प, ९. फल, १०. बीज (१५५)। श्रेणि-सूत्र
१५६- सव्वाओवि णं विजाहरसेढीओ दस-दस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। दीर्घ वैताढ्य पर्वत पर अवस्थित सभी विद्याधर-श्रेणियां दश-दश योजन विस्तृत कही गई हैं (१५६)। १५७- सव्वाओवि णं आभिओगसेढीओ दस-दस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। दीर्घ वैताढ्य पर्वत पर अवस्थित सभी आभियोगिक-श्रेणियां दश-दश योजन विस्तृत कही गई हैं (१५७)।
विवेचन- भरत और ऐरवत क्षेत्र के ठीक मध्यभाग में पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र तक लम्बा और मूल में पचास योजन चौड़ा एक-एक वैताढ्य पर्वत है। इसकी ऊंचाई पच्चीस योजन है। भूमितल से दश योजन की ऊंचाई पर उसके उत्तरी और दक्षिणी भाग पर विद्याधरों की श्रेणियां मानी गई हैं। उनमें विद्याधर रहते हैं, जो कि विद्याओं के बल से आकाश में गमनादि करने में समर्थ होते हैं। वे श्रेणियां दोनों ओर दश-दश योजन चौड़ी हैं। इन विद्याधर-श्रेणियों से भी दश योजन की ऊंचाई पर आभियोगिक श्रेणियां मानी गई हैं, जिनमें अभियोग जाति के व्यन्तर देव रहते हैं। ये श्रेणियां भी दोनों ओर दश-दश योजनं चौड़ी कही गई हैं। ग्रैवेयक-सूत्र
१५८- गेविजगविमाणा णं दस जोयणसयाइं उठें उच्चत्तेणं पण्णत्ता।
ग्रैवेयक विमानों के ऊपर की ऊंचाई दश सौ (१०००) योजन कही गई है (१५८)। तेजसा-भस्मकरण-सूत्र
१५९- दसहिं ठाणेहिं सह तेयसा भासं कुज्जा, तं जहा१. केइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चासातिते समाणे परिकुविते
तस्स तेयं णिसिरेज्जा। से तं परितावेति, से तं परितावेत्ता तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा। २. केइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेजा, से य अच्चासातिते समाणे देवे परिकुविए
तस्स तेयं णिसिरेजा। से तं परितावेति, से तं परितावेत्ता, तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा।