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________________ ७१४ स्थानाङ्गसूत्रम् संग्रहणी गाथा णिसग्गुवएसरुई, आणारुई सुत्तबीयरुइमेव । अभिगम वित्थाररुई, किरिया-संखेव-धम्मरुई ॥१॥ सरागसम्यग्दर्शन दश प्रकार का कहा गया है, जैसे१. निसर्गरुचि— बिना किसी बाह्य निमित्त से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन। २. उपदेशरुचि-गुरु आदि के उपदेश से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन। ३. आज्ञारुचि- अर्हत्-प्रज्ञप्त सिद्धान्त से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन। ४. सूत्ररुचि-सूत्र-ग्रन्थों के अध्ययन से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन। ५. बीजरुचि-बीज की तरह अनेक अर्थों के बोधक एक ही वचन के मनन से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन। ६. अभिगमरुचि-सूत्रों के विस्तृत अर्थ से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन। ७. विस्ताररुचि- प्रमाण-नय के विस्तारपूर्वक अध्ययन से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन। ८. क्रियारुचि— धार्मिक-क्रियाओं के अनुष्ठान से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन। ९. संक्षेपरुचि- संक्षेप से कुछ धर्म-पदों के सुनने मात्र से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन। . १०. धर्मरुचि- श्रुतधर्म और चारित्रधर्म के श्रद्धान से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन (१०४)। संज्ञा-सूत्र - १०५- दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं जहा—आहारसण्णा, (भयसण्णा, मेहुणसण्णा), परिग्गहसण्णा, कोहसण्णा, (माणसण्णा, मायासण्णा), लोभसण्णा, लोगसण्णा, ओहसण्णा। संज्ञाएं दश प्रकार की कही गई हैं, जैसे१. आहारसंज्ञा, २. भयसंज्ञा, ३. मैथुनसंज्ञा, ४. परिग्रहसंज्ञा, ५. क्रोधसंज्ञा, ६. मानसंज्ञा, ७. मायासंज्ञा, ८. लोभसंज्ञा, ९. लोकसंज्ञा, १०. ओघसंज्ञा (१०५)। विवेचन- आहार आदि चार संज्ञाओं का अर्थ चतुर्थ स्थान में किया गया तथा क्रोधादि चार कषायसंज्ञाएं भी स्पष्ट ही हैं। संस्कृत टीकाकार ने लोकसंज्ञा का अर्थ सामान्य अवबोधरूप क्रिया या दर्शनोपयोग और ओघसंज्ञा का अर्थ विशेष अवबोधरूप क्रिया या ज्ञानोपयोग करके लिखा है कि कुछ आचार्य सामान्य प्रवृत्ति को ओघसंज्ञा और लोकदृष्टि को लोकसंज्ञा कहते हैं। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि मन के निमित्त से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह दो प्रकार का होता है—विभागात्मक ज्ञान और निर्विभागात्मक ज्ञान । स्पर्श-रसादि के विभाग वाला विशेष ज्ञान विभागात्मक ज्ञान है और स्पर्श-आदि के विभाग विना जो साधारण ज्ञान होता है, उसे ओघसंज्ञा कहते हैं। भूकम्प आदि आने के पूर्व ही ओघसंज्ञा से उसका आभास पाकर अनेक पशु-पक्षी सुरक्षित स्थानों को चले जाते हैं। १०६–णेरइयाणं दस सण्णाओ एवं चेव। इसी प्रकार नारकों के दश संज्ञाएं कही गई हैं (१०६)। १०७– एवं निरंतरं जाव वेमाणियाणं।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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