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________________ १० स्थानाङ्गसूत्रम् (९३)। मैथुन (कुशील) एक है (९४)। परिग्रह एक है (९५)। क्रोध कषाय एक है (९६)। मान कषाय एक है (९७)। माया कषाय एक है (९८)। लोभ कषाय एक है (९९)।.प्रेयस् (राग) एक है (१००)। द्वेष एक है (१०१)। कलह एक है (१०२)। अभ्याख्यान एक है (१०३)। पैशुन्य एक है (१०४)। पर-परिवाद एक है (१०५)। अरति-रति एक है (१०६) । मायामृषा एक है (१०७)। और मिथ्यादर्शनशल्य एक है (१०८)। विवेचन– यद्यपि मृषा और माया को पृथक्-पृथक् पाप माना गया है, किन्तु सत्रहवें पाप का नाम मायामृषा दिया गया है, उसका अभिप्राय माया-युक्त असत्य भाषण से है। किन्तु स्थानाङ्ग की टीका में इस का अर्थ वेष बदल कर दूसरों को ठगना कहा है। उद्वेग रूप मनोविकार को अरति और आनन्दरूप चित्तवृत्ति को रति कहते हैं। परन्तु इनको एक कहने का कारण यह है कि जहाँ किसी वस्तु में रति होती है, वहीं अन्य वस्तु में अरति अवश्यम्भावी है। अतः दोनों को एक कहा गया है। अष्टादश पापविरमण-पद १०९- एगे पाणाइवाय-वेरमणे जाव। ११० - [एगे मुसवाय-वेरमणे। १११– एगे अदिण्णादाण-वेरमणे। ११२– एगे मेहुण-वेरमणे। ११३– एगे परिग्गह-वेरमणे। ११४ – एगे कोह-विवेगे। ११५ - [एगे माण-विवेगे जाव; ११६– एगे- माया-विवेगे। ११७– एगे लोभ-विवेगे। ११८- एगे पेज-विवेगे। ११९- एगे दोस-विवेगे। १२०- एगे कलह-विवेगे। १२१– एगे अब्भक्खाण-विवेगे। १२२– एगे पेसुण्णे-विवेगे। १२३– एगे परपरिवाय-विवेगे। १२४– एगे अरतिरति-विवेगे। १२५– एगे मायामोस-विवेगे। १२६- एगे] मिच्छादसण-सल्लविवेगे। प्राणातिपात-विरमण एक है (१०९)। मृषावाद-विरमण एक है (११०)। अदत्तादान-विरमण एक है (१११)। मैथुन-विरमण एक है (११२)। परिग्रह-विरमण एक है (११३)। क्रोध-विवेक एक है (११४)। मानविवेक एक है (११५)। माया-विवेक एक है (११६)। लोभ-विवेक एक है (११७)। प्रेयस् (राग)-विवेक एक है (११८)। द्वेष-विवेक एक है (११९)। कलह-विवेक एक है (१२०)। अभ्याख्यान-विवेक एक है (१२१)। पैशुन्य-विवेक एक है (१२२)। पर-परिवाद-विवेक एक है (१२३)। अरति-रति-विवेक एक है (१२४) । मायामृषा-विवेक एक है (१२५)। और मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक एक है (१२६)। विवेचन जिस प्रकार प्राणातिपात आदि अठारह पापस्थानों के तर-तम भाव की अपेक्षा अनेक भेद होते हैं, किन्तु पापरूप कार्य की समानता से उन्हें एक कहा गया है, उसी प्रकार उन पाप-स्थानों के विरमण (त्याग) रूप स्थान भी तर-तम भाव की अपेक्षा अनेक होते हैं, किन्तु उनके त्याग की समानता से उन्हें एक कहा गया है। अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी-पद १२७– एगा ओसप्पिणी। १२८–एगा सुसम-सुसमा जाव। १२९-[एगा सुसमा। १३०एगा सुसम-दूसमा। १३१- एगा दूसम-सुसमा। १३२- एगा दूसमा]। १३३- एगा दूसमदूसमा। १३४- एगा उस्सप्पिणी। १३५- एगा दुस्सम-दुस्समा जाव। १३६- एगा दुस्समा।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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