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दशम स्थान
आलोचना - सूत्र
७०—– दस आलोयणादोसा पण्णत्ता,
२. (२) १.
तं जहा
आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता, जं दिट्टं बायरं च सुहुमं वा । छण्णं सद्दाउलगं, बहुजण अव्वत्त
आलोचना के दश दोष कहे गये हैं, जैसे—
१. आकम्प्य या आकम्पित दोष, २. अनुमन्य या अनुमानित दोष, ३. दृष्टदोष, ४. बादरदोष, ५. सूक्ष्म दोष, ६. छन्न दोष, ७. शब्दाकुलित दोष, ८. बहुजन दोष, ९. अव्यक्त दोष, १०. तत्सेवी दोष ।
विवेचन — प्रस्तुत सूत्र में आलोचना के दश दोषों की प्रतिपादक जो गाथा दी गई है, वह निशीथभाष्य चूर्णि में मिलती है और कुछ पाठ-भेद के साथ दि० ग्रन्थ मूलाचार के शीलगुणाधिकार में तथा भगवती आराधना में मूल गाथा के रूप में निबद्ध एवं अन्य ग्रन्थों में उद्धृत पाई जाती है। दोषों के अर्थ में कहीं-कहीं कुछ अन्तर है, उस स का स्पष्टीकरण श्वे० व्याख्या० नं० १ में और दि० व्याख्या नं० २ में इस प्रकार है
(१) १.
२.
(४) १.
तस्सेवी ॥ १ ॥
२.
(५) १.
२.
६९५
(६) १.
२.
२. शारीरिक शक्ति का अनुमान लगाकर तदनुसार दोष - निवेदन करना, जिससे कि गुरु उससे अधिक
प्रायश्चित्त न दें।
आकम्प्य या आकम्पित दोष सेवा आदि के द्वारा प्रायश्चित्त देने वाले की आराधना कर आलोचना करना, गुरु को उपकरण देने से वे मुझे लघु प्रायश्चित्त देंगे, ऐसा विचार कर उपकरण देकर आलोचना
(३) १. यद्दृष्ट-गुरु आदि के द्वारा जो दोष देख लिया गया है, उसी की आलोचना करना, अन्य अदृष्ट दोषों
की नहीं करना ।
दूसरों के द्वारा अदृष्ट दोष छिपाकर दृष्ट दोष की आलोचना करना । बादर दोष केवल स्थूल या बड़े दोष की आलोचना करना । कहकर केवल स्थूल दोष की आलोचना करना ।
सूक्ष्म दोष न
सूक्ष्म दोष केवल छोटे दोषों की आलोचना करना ।
स्थूल दोष कहने से गुरु प्रायश्चित्त मिलेगा, यह सोचकर छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना ।
करना ।
कंपते हुए आलोचना करना, जिससे कि गुरु अल्प प्रायश्चित्त दें।
अनुमान्य या अनुमानितदोष 'मैं दुर्बल हूं, मुझे अल्प प्रायश्चित्त देवें,' इस भाव से अनुनय कर आलोचना करना।
छन्न दोष—इस प्रकार से आलोचना करना कि गुरु सुनने न पावें ।
किसी बहाने से दोष कह कर स्वयं प्रायश्चित्त ले लेना, अथवा गुप्त रूप से एकान्त में जाकर गुरु से दोष कहना, जिससे कि दूसरे सुन न पावें ।
साधु सुन
(७) १. शब्दाकुल या शब्दाकुलित दोष—– जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना, जिससे कि दूसरे अगीतार्थ
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