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________________ ६९० स्थानाङ्गसूत्रम् ४५ – एवं कुंडलवरेवि । इसी प्रकार कुण्डलवर पर्वत भी रुचकवर पर्वत के समान जानना चाहिए (४५)। द्रव्यानुयोग-सूत्र ४६ — दसविहे दवियाणुओगे पण्णत्ते, तं जहा—दवियाणुओगे, माउयाणुओगे, एगट्ठियाणुआगे, करणाणुओगे, अप्पितणप्पिते, भाविताभांविते, बाहिराबाहिरे, सासतासासते, तहणाणे, अतहणाणे । द्रव्यानुयोग दश प्रकार का कहा गया है, जैसे— १. द्रव्यानुयोग, २. मातृकानुयोग, ३. एकार्थिकानुयोग, ४. करणानुयोग, ५. अर्पितानर्पितानुयोग, ६. भाविताभावितानुयोग, ७. बाह्याबाह्यानुयोग, ८. शाश्वताशाश्वतानुयोग, ९. तथाज्ञानानुयोग, १०. अतथाज्ञानानुयोग (४६) । विवेचन—– जीवादि द्रव्यों की व्याख्या करने वाले अनुयोग को द्रव्यानुयोग कहते हैं। गुण और पर्याय जिसमें पाये जायें, उसे द्रव्य कहते हैं । द्रव्य के सहभागी ज्ञान- दर्शनादि धर्मों को गुण और मनुष्य, तिर्यंचादि क्रमभावी धर्मों को पर्याय कहते हैं । द्रव्यानुयोग में इन गुणों और पर्यायों वाले द्रव्य का विवेचन किया गया है। २. मातृकानुयोग — इस अनुयोग में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप मातृकापद के द्वारा द्रव्यों का विवेचन किया गया है। ३. एकार्थिकानुयोग — इसमें एक अर्थ के वाचक अनेक शब्दों की व्याख्या के द्वारा द्रव्यों का विवेचन किया गया है। जैसे—सत्त्व, भूत, प्राणी और जीव, ये शब्द एक अर्थ के वाचक हैं, आदि । ४. करणानुयोग — द्रव्य की निष्पत्ति में साधकतम कारण को करण कहते हैं। जैसे घट की निष्पत्ति में मिट्टी, कुम्भकार, चक्र आदि । जीव की क्रियाओं में काल, स्वभाव, नियति आदि साधक हैं। इस प्रकार द्रव्यों के साधकतम कारणों का विवेचन इस करणानुयोग में किया गया है। ५. अर्पितानर्पितानुयोग—–—–— मुख्य या प्रधान विवक्षा को अर्पित और गौण या अप्रधान विवक्षा को अर्पित कहते हैं। इस अनुयोग में सभी द्रव्यों के गुण-पर्यायों का विवेचन मुख्य और गौण की विवक्षा से किया गया है। ६. भाविताभावितानुयोग— इस अनुयोग में द्रव्यान्तर से प्रभावित या अप्रभावित होने का विचार किया गया है। जैसे—सकषाय जीव अच्छे या बुरे वातावरण से प्रभावित होता है, किन्तु अकषाय जीव नहीं होता, आदि । ७. बाह्याबाह्यानुयोग— इस अनुयोग में एक द्रव्य की दूसरे द्रव्य के साथ बाह्यता (भिन्नता) और अबाह्यता (अभिन्नता) का विचार किया गया है। ८. शाश्वताशाश्वतानुयोग — इस अनुयोग में द्रव्यों के शाश्वत (नित्य) और अशाश्वत (अनित्य) धर्मों का विचार किया गया है। ९. तथाज्ञानानुयोग — इसमें द्रव्यों के यथार्थ स्वरूप का विचार किया गया है। १०. अतथाज्ञानानुयोग—इस अनुयोग में मिध्यादृष्टियों के द्वारा प्ररूपित द्रव्यों के स्वरूप का (अयथार्थ स्वरूप का) निरूपण किया गया है।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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