SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थानाङ्गसूत्रम् पर यहाँ विशिष्टतर लब्धि पाये जाने की अपेक्षा देवों और मनुष्यों का ही सूत्र में उल्लेख किया गया है। देव पद से वैमानिक और ज्योतिष्क देवों का, तथा असुरपद से भवनपति और व्यन्तरों का ग्रहण अभीष्ट है। जीवों के एक समय में एक ही मनोयोग, एक ही वचनयोग और एक ही काययोग होता है। मनोयोग के आगम में चार भेद कहे गये हैं। सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग, सत्य-मृषामनोयोग और अनुभय-मनोयोग। इसमें से एक जीव के एक समय में एक ही मनोयोग का होना संभव है, शेष तीनों का नहीं। इसी प्रकार वचनयोग के चार भेद होते हैं— सत्यवचनयोग, मृषा-वचनयोग, सत्यमृषा-वचनयोग और अनुभयवचनयोग। इन चारों में से एक समय में एक जीव के एक ही वचनयोग होना संभव है, शेष तीन वचनयोगों का होना संभव नहीं है। काययोग के सात भेद बताये गये हैं- औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग। इनमें से एक समय में एक ही काययोग का होना संभव है, शेष छह का नहीं। अतः सूत्र में एक काल में एक काययोग का विधान किया गया है। उत्थान, कर्म, बल आदि शब्द यद्यपि स्थूल दृष्टि से पर्याय-वाचक माने गये हैं, तथापि सूक्ष्म दृष्टि से उनका अर्थ इस प्रकार है-उत्थान —उठने की चेष्टा करना। कर्म भ्रमण आदि की क्रिया। बल शारीरिक सामर्थ्य । वीर्य-आन्तरिक सामर्थ्य। पुरुषकार—आत्मिक पुरुषार्थ और पराक्रम कार्य-सम्पादनार्थ प्रबल प्रयत्न। यह भी एक जीव के एक समय में एक ही होता है। ४५- एगे णाणे। ४६- एगे दंसणे। ४७ – एगे चरित्ते। ४८ – एगे समए। ४९- एगे पएसे। ५०- एगे परमाणू। ५१- एगा सिद्धी। ५२- एगे सिद्धे। ५३- एगे परिणिव्वाणे। ५४- एगे परिणिव्वुए। ज्ञान एक है (४५)। दर्शन एक है (४६)। चारित्र एक है (४७)। समय एक है (४८)। प्रदेश एक है (४९)। परमाणु एक है (५०)। सिद्धि एक है (५१)। सिद्ध एक है (५२)। परिनिर्वाण एक है (५३) और परिनिर्वृत्त एक है (५४)। विवेचन- वस्तुस्वरूप के जानने को ज्ञान, श्रद्धान को दर्शन और यथार्थ आचरण को चारित्र कहते हैं। इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है, अतः इनको एक-एक ही कहा गया है। काल द्रव्य के सबसे छोटे अंश को समय, आकाश के सबसे छोटे अंश को प्रदेश और पुद्गल के अविभागी अंश को परमाणु कहते हैं। अतएव ये भी एकएक ही हैं। आत्मसिद्धि सबकी एक सदृश है अतः सिद्ध एक हैं। कर्म-जनित सर्व विकारी भावों के अभाव को परिनिर्वाण कहते हैं तथा शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता का अभाव होने पर स्वस्थिति के प्राप्त करने वाले को परिनिर्वृत अर्थात् मुक्त कहते हैं। ये सभी सिद्धात्माओं में समान होते हैं अतः उन्हें एक कहा गया है। पुद्गल-पद ५५– एगे सद्दे। ५६ – एगे रूवे। ५७– एगे गंधे। ५८- एगे रसे। ५९– एगे फासे।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy