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स्थानाङ्गसूत्रम्
५.
न कभी ऐसा हुआ है, न ऐसा हो रहा है, और न कभी ऐसा होगा कि त्रसजीवों का विच्छेद हो जाय और सब जीव स्थावर हो जायें। अथवा स्थावर जीवों का विच्छेद हो जाय और सब जीव त्रस हो जायें। यह भी एक लोकस्थिति कही गई है।
६. न कभी ऐसा हुआ है, न ऐसा हो रहा है और न कभी ऐसा होगा कि जब लोक, अलोक हो जाय और लोक, लोक हो जाय। यह भी एक लोकस्थिति कही गई है।
७.
न कभी ऐसा हुआ है, न ऐसा हो रहा है और न कभी ऐसा होगा कि जब लोक अलोक में प्रविष्ट हो जाय और अलोक लोक में प्रविष्ट हो जाय। यह भी एक लोकस्थिति कही गई है।
८. जहाँ तक लोक है, वहाँ तक जीव हैं और जहाँ तक जीव हैं वहाँ तक लोक है। यह भी एक लोकस्थिति कही गई है।
जहाँ तक जीव और पुद्गलों का गतिपर्याय (गमन) है, वहाँ तक लोक है और जहाँ तक लोक है, वहाँ तक जीवों और पुद्गलों का गतिपर्याय है । यह भी एक लोकस्थिति कही गई है।
१०. लोक के सभी अन्तिम भागों में अबद्ध पार्श्वस्पृष्ट (अबद्ध और अस्पृष्ट) पुद्गल दूसरे रूक्ष पुद्गलों के द्वारा रूक्ष कर दिये जाते हैं, जिससे जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर गमन करने के लिए समर्थ नहीं होते हैं। यह भी एक लोकस्थिति कही गई है (१) ।
इन्द्रियार्थ सूत्र
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२ दसविहे सद्दे पण्णत्ते, तं जहा
संग्रह - श्लोक
णीहारि पिंडिमे लुक्खे, भिण्णे जज्जरिते इ य । दीहे रहस्से पुहत्ते य, काकणी खिंखिणिस्सरे ॥ १ ॥
शब्द दश प्रकार का कहा गया है, जैसे—
१. निर्हारी — घण्टे से निकलने वाला घोषवान् शब्द ।
२. पिण्डिम घोष - रहित नगाड़े का शब्द ।
३. रूक्ष काक के समान कर्कश शब्द |
४. भिन्न— वस्तु के टूटने से होने वाला शब्द।
५. जर्जरित तार वाले बाजे का शब्द |
६. दीर्घ दूर तक सुनाई देने वाला मेघ जैसा शब्द ।
७.
ह्रस्व सूक्ष्म या थोड़ी दूर तक सुनाई देने वाला वीणादि का शब्द ।
८. पृथक्त्व अनेक बाजों का संयुक्त शब्द ।
९. काकणी— सूक्ष्म कण्ठों से निकला शब्द ।
१०. किंकिणीस्वर — घुंघरुओं की ध्वनि रूप शब्द (२) ।
३ – दस इंदियत्थ तीता पण्णत्ता, तं जहा — देसेणवि एगे सद्दाई सुणिंसु । सव्वेणवि एगे