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स्थानाङ्गसूत्रम्
आठ प्रकार के शुभाशुभ-सूचक महानिमित्त कहे गये हैं, जैसे१. भौम- भूमि की स्निग्धता–रूक्षता भूकम्प आदि से शुभाशुभ जानना। २. उत्पात- उल्कापात रुधिर-वर्षा आदि से शुभाशुभ जानना। ३. स्वप्न- स्वप्नों के द्वारा भावी शुभाशुभ जानना। ४. आन्तरिक्ष- आकाश में विविध वर्गों के देखने से शुभाशुभ जानना। ५. आङ्ग- शरीर के अंगों को देखकर शुभाशुभ जानना। ६. स्वर- स्वर को सुनकर शुभाशुभ जानना। ७. लक्षण— स्त्री-पुरुषों के शरीर-गत चक्र आदि लक्षणों को देखकर शुभाशुभ जानना।
८. व्यञ्जन- तिल, मसा आदि देखकर शुभाशुभ जानना (२३)। वचनविभक्ति-सूत्र - २४– अट्ठविधा वयणविभत्ती पण्णत्ता, तं जहासंग्रहणी-गाथाएँ
णिद्देसे पढमा होती, बितिया उवएसणे । ततिया करणम्मि कता, चउत्थी संपदाणवे ॥१॥ पंचमी य अवादाणे, छट्ठी सस्सामिवादणे ।। सत्तमी सण्णिहाणत्थे, अट्ठमी आमंतणी भवे ॥२॥ तत्थ पढमा विभत्ती, णिद्देसे सो इमो अहं वत्ति ।। बितिया उण उवएसे—भण 'कुण व' इमं व तं वत्ति ॥३॥ ततिया करणम्मि कया—णीतं व कतं व तेण व मए व । हंदि णमो. साहाए, हवति चउत्थी पदाणंमि ॥४॥ अवणे गिण्हसु तत्तो, इत्तोत्ति वा पंचमी अवादाणे । छट्ठी तस्स इमस्स व, गतस्स वा सामि-संबंधे ॥५॥ हवइ पुण सत्तमी तमिमम्मि आहारकालभावे य।।
आमंतणी भवे अट्ठमी उ जह हे जुवाण ! त्ति ॥६॥ वचन-विभक्तियाँ आठ प्रकार की कही गई हैं, जैसे१. निर्देश (नमोच्चारण) में प्रथमा विभक्ति होती है। २. उपदेश क्रिया से व्याप्त कर्म के प्रतिपादन में द्वितीया विभक्ति होती है। . ३. क्रिया के प्रति साधकतम कारण के प्रतिपादन में तृतीया विभक्ति होती है। ४. सत्कार-पूर्वक दिये जाने वाले पात्र को देने, नमस्कार आदि करने के अर्थ में चतुर्थी विभक्ति होती है। ५. पृथक्ता, पतनादि अपादान बताने के अर्थ में पंचमी विभक्ति होती है।