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________________ स्थानाङ्गसूत्रम् ७. अबद्धिक भि. महावीर के निर्वाण के ५८४ वर्ष बाद दशपुर नगर में अबद्धिकमत प्रारम्भ हुआ । इसके प्रवर्तक गोष्ठामाहिल थे। ६०४ उस समय दशपुर नगर में राजकुल से सम्मानित ब्राह्मणपुत्र आर्यरक्षित रहता था । उसने अपने पिता से पढ़ना प्रारम्भ किया। जब वह पिता से पढ़ चुका तब विशेष अध्ययन के लिए पाटलिपुत्र नगर गया। वहां से वेद-वेदाङ्गों को पढ़ कर घर लौटा। माता के कहने से उसने जैनाचार्य तोसलिपुत्र के पास जाकर प्रव्रजित हो दृष्टिवाद पढ़ना प्रारम्भ किया। आर्यवज्र के पास नौ पूर्वों को पढ़ कर दशवें पूर्व के चौवीस यविक ग्रहण किये। आ. आर्यरक्षित के तीन प्रमुख शिष्य थे— दुर्बलिकापुष्यमित्र, फल्गुरक्षित और गोष्ठामाहिल । उन्होंने अन्तिम समय में दुर्बलिकापुष्यमित्र को गण का भार सौंपा। एक बार दुर्बलिकापुष्यमित्र अर्थ की वाचना दे रहे थे। उनके जाने के बाद विन्ध्य उस वाचना का अनुभाषण कर रहा था। गोष्ठामाहिल उसे सुन रहा था। उस समय आठवें कर्मप्रवाद पूर्व के अन्तर्गत कर्म का विवेचन चल रहा था। उसमें एक प्रश्न यह था कि जीव के साथ कर्मों का बन्ध किस प्रकार होता है ! उसके समाधान में कहा गया था कि कर्म का बन्ध तीन प्रकार से होता है— १. स्पृष्ट–— कुछ कर्म जीव- प्रदेशों के साथ स्पर्श मात्र करते हैं और तत्काल सूखी दीवाल पर लगी धूलि के समान झड़ जाते हैं। २. स्पृष्ट बद्ध कुछ कर्म जीव- प्रदेशों का स्पर्श कर बंधते हैं, किन्तु वे भी कालान्तर में झड़ जाते हैं, जैसे कि गीली दीवार पर उड़कर लगी धूलि कुछ तो चिपक जाती है और कुछ नीचे गिर जाती है। ३. स्पृष्ट, बद्ध निकाचित—— कुछ कर्म जीव- प्रदेशों के साथ गाढ़ रूप से बंधते हैं और दीर्घ काल तक बंधे रहने के बाद स्थिति का क्षय होने पर वे अलग हो जाते हैं। उक्त व्याख्यान सुनकर गोष्ठामाहिल का मन शंकित हो गया। उसने कहा— कर्म को जीव के साथ बद्ध मानने से मोक्ष का अभाव हो जायेगा। फिर कोई भी जीव मोक्ष नहीं जा सकेगा । अतः सही सिद्धान्त यही है कि कर्म जीव के साथ स्पृष्ट मात्र होते हैं, बंधते नहीं हैं, क्योंकि कालान्तर में वे जीव से वियुक्त होते हैं। जो वियुक्त होता है, वह एकात्मरूप से बद्ध नहीं हो सकता। उसने अपनी शंका विन्ध्य के सामने रखी। विन्ध्य ने कहा कि आचार्य ने इसी प्रकार का अर्थ बताया था । गोष्ठामाहिल के गले यह बात नहीं उतरी। वह अपने ही आग्रह पर दृढ़ रहा । इसी प्रकार नौवें पूर्व की वाचना समय प्रत्याख्यान के यथाशक्ति और यथाकाल करने की चर्चा पर विवाद खड़ा होने पर उसने तीर्थंकर - भाषित अर्थ को भी स्वीकार नहीं किया, तब संघ ने उसे बाहर कर दिया। वह अपनी मान्यता का प्रचार करने लगा कि कर्म आत्मा का स्पर्शमात्र करते हैं, किन्तु उसके साथ लोलीभाव से बद्ध नहीं होते। उक्त सात निह्नवों में जमालि, रोहगुप्त तथा गोष्ठामाहिल ये तीन अन्त तक अपने आग्रह पर दृढ़ रहे और अपने मत का प्रचार करते रहे। शेष चार ने अपना आग्रह छोड़कर अन्त में भगवान् के शासन को स्वीकार कर लिया (१४२) । अनुभाव - सूत्र १४३ सातावेयणिज्जस्स णं कम्मस्स सत्तविधे अणुभावे पण्णत्ते, तं जहा —— मणुण्णा सद्दा,
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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