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- स्थानाङ्गसूत्रम्
निर्ग्रन्थप्रवचन सर्वनय-सापेक्ष होता है। अत: शंका मत कर। एक पर्याय के विनाश से वस्तु का सर्वथा विनाश नहीं होता। इत्यादि अनेक प्रकार से आचार्य द्वारा समझाने पर भी वह नहीं समझा। तब आचार्य ने उसे संघ से निकाल दिया।
संघ से अलग होकर वह समुच्छेदवाद का प्रचार करने लगा। उसके अनुयायी एकान्त समुच्छेद का निरूपण करते हैं।
५.द्वैक्रिय निह्नव- भ. महावीर के निर्वाण के २२८ वर्ष बाद उल्लुकातीर नगर में द्विक्रियावाद की उत्पत्ति हुई। इसके प्रवर्तक गंग थे।
प्राचीन काल में उल्लुका नदी के एक किनारे एक खेड़ा था और दूसरे किनारे उल्लुकातीर नाम का नगर था। वहाँ आ. महागिरि के शिष्य आ. धनगुप्त रहते थे। उनके शिष्य का नाम गंग था। वे भी आचार्य थे। एक बार वे शरद् ऋतु में अपने आचार्य की वन्दना के लिए निकले। मार्ग में उल्लुका नदी थी। वे नदी में उतरे। उनका शिर गंजा था। ऊपर सूरज तप रहा था और नीचे पानी की ठंडक थी। नदी पार करते समय उन्हें शिर पर सूर्य की गर्मी और पैरों में नदी की ठंडक का अनुभव हो रहा था। वे सोचने लगे—'आगम में ऐसा कहा है कि एक समय में एक ही क्रिया का वेदन होता है, दो का नहीं। किन्तु मुझे स्पष्ट रूप से एक साथ दो क्रियाओं का वेदन हो रहा है। वे अपने आचार्य के पास पहुंचे और अपना अनुभव उन्हें सुनाया। गुरु ने कहा—'वत्स! वस्तुतः एक समय में एक ही क्रिया का वेदन होता है. दो का नहीं। समय और मन का क्रम बहत सूक्ष्म है, अतः हमें उनके क्रम का पता नहीं लगता।' गुरु के समझाने पर भी वे नहीं समझे, तब उन्होंने गंग को संघ से बाहर कर दिया।
संघ से अलग होकर वे द्विक्रियावाद का प्रचार करने लगे। उनके अनुयायी एक ही क्षण में एक ही साथ दो क्रियाओं का वेदन मानते हैं।
६. त्रैराशिक निह्नव- भ. महावीर के निर्वाण के ५४४ वर्ष बाद अन्तरंजिका नगरी में त्रैराशिक मत का प्रवर्तन हुआ। इसके प्रवर्तक रोहगुप्त (षडुलूक) थे।
अतिरंजिका नगरी में एक बार आ. श्रीगुप्त ठहरे हुए थे। उनके संसार-पक्ष का भानेज उनका शिष्य था। एक बार वह दूसरे गांव से आचार्य की वन्दना को आ रहा था। मार्ग में उसे एक पोट्टशाल नाम का परिव्राजक मिला, जो हर एक को अपने साथ शास्त्रार्थ करने की चुनौती दे रहा था। रोहगुप्त ने उसकी चुनौती स्वीकार कर ली और आकर आचार्य को सारी बात कही। आचार्य ने कहा—'वत्स! तूने ठीक नहीं किया। वह परिव्राजक सात विद्याओं में पारंगत है, अतः तुझसे बलवान् है।' रोहगुप्त आचार्य की बात सुन कर अवाक रह गया। कुछ देर बाद बोलागुरुदेव! अब क्या किया जाय! आचार्य ने कहा—वत्स! अब डर मत! मैं तुझे उसकी प्रतिपक्षी सात विद्याएं सिखा देता हूं। तू यथासमय उनका प्रयोग करना। आचार्य ने उसे प्रतिपक्षी सात विद्याएं इस प्रकार सिखाईपोट्टशाल की विद्याएं
प्रतिपक्षी विद्याएं १. वृश्चिकविद्या
= मायूरी विद्या २. सर्पविद्या
= नाकुलीविद्या ३. मूषकविद्या
= विडालीविद्या ४. मृगीविद्या
= व्याघ्रीविद्या