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________________ सप्तम स्थान ६०१ किन्तु मित्रश्री उनके चरण-वन्दन करके बोला—'अहो, मैं पुण्यशाली हूं कि आप जैसे गुरुजन मेरे घर पधारे।' यह सुनते ही तिष्यगुप्त क्रोधित होकर बोले—'तूने मेरा अपमान किया है।' मित्रश्री ने कहा—'मैंने आपका अपमान नहीं किया, किन्तु आपकी मान्यता के अनुसार ही आपको भिक्षा दी है। आप वस्तु के अन्तिम प्रदेश को ही वस्तु मानते हैं, दूसरे प्रदेशों को नहीं। इसलिए मैंने प्रत्येक पदार्थ का अन्तिम अंश आपको दिया है।' तिष्यगुप्त समझ गये। उन्होंने कहा—'आर्य! इस विषय में तुम्हारा अनुशासन चाहता हूं।' मित्रश्री ने उन्हें समझा कर पुनः यथाविधि भिक्षा दी। इस घटना से तिष्यगुप्त अपनी भूल समझ गये और फिर भगवान् के शासन में सम्मिलित हो गये। ३. अव्यक्तिक निह्नव– भ. महावीर के निर्वाण के २१४ वर्ष बाद श्वेतविका नगरी में अव्यक्तवाद की उत्पत्ति हुई। इसके प्रवर्तक आचार्य आषाढ़भूति के शिष्य थे। श्वेतविका नगरी में रहते समय वे अपने शिष्यों को योगाभ्यास कराते थे। एक बार वे हृदय-शूल से पीड़ित हुए और उसी रोग से मर कर सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुए। उन्होंने अवधिज्ञान से अपने मृत शरीर को देखा और देखा कि उनके शिष्य आगाढ़ योग में लीन हैं तथा उन्हें आचार्य की मृत्यु का पता नहीं है। तब देवरूप में आ. आषाढ़ का जीव नीचे आया और अपने मृत शरीर में प्रवेश कर उसने शिष्यों को कहा—'वैरात्रिक करो।' शिष्यों ने उनकी वन्दना कर वैसा ही किया। जब उनकी योग-साधना समाप्त हुई, तब आ. आषाढ़ का जीव देवरूप में प्रकट होकर बोला-'श्रमणो! मुझे क्षमा करें। मैंने असंयती होते हुए भी आप संयतों से वन्दना कराई।' यह कह के अपनी मृत्यु की सारी बात बता कर वे अपने स्थान को चले गये। उनके जाते ही श्रमणों को सन्देह हो गया—'कौन जाने कि कौन साधु है और कौन देव है ? निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कह सकते! सभी वस्तुएं अव्यक्त हैं।' उनका मन सन्देह के हिंडोले में झूलने लगा। स्थविरों ने उन्हें समझाया, पर वे नहीं समझे। तब उन्हें संघ से बाहर कर दिया गया। अव्यक्तवाद को मानने वालों का कहना है कि किसी भी वस्तु के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सब कुछ अव्यक्त है। अव्यक्तवाद का प्रवर्तन आ. आषाढ़ ने नहीं किया था। इसके प्रवर्तक उनके शिष्य थे। किन्तु इस मत के प्रवर्तन में आ. आषाढ़ का देवरूप निमित्त बना, इसलिए उन्हें इस मत का प्रवर्तक मान लिया गया। ४. सामुच्छेदिक निह्नव- भ. महावीर के निर्वाण के २२० वर्ष बाद मिथिलापुरी में समुच्छेदवाद की उत्पत्ति हुई। इसके प्रवर्तक आ. अश्वमित्र थे। एक बार मिथिलानगरी में आ. महागिरि ठहरे हुए थे। उनके शिष्य का नाम कोण्डिन्य और प्रशिष्य का नाम अश्वमित्र था। वह विद्यानुवाद पूर्व के नैपुणिक वस्तु का अध्ययन कर रहा था। उसमें छिन्नच्छेदनय के अनुसार एक आलापक यह था कि पहले समय में उत्पन्न सभी नारक जीव विच्छिन्न हो जावेंगे, इसी प्रकार दूसरे-तीसरे आदि समयों में उत्पन्न नारक विच्छिन्न हो जावेंगे। इस पर्यायवाद के प्रकरण को सुनकर अश्वमित्र का मन शंकित हो गया। उसने सोचा यदि वर्तमान समय में उत्पन्न सभी जीव किसी समय विच्छिन्न हो जावेंगे, तो सुकृत-दुष्कृत कर्मों का वेदन कौन करेगा? क्योंकि उत्पन्न होने के अनन्तर ही सब की मृत्यु हो जाती है। गुरु ने कहा—वत्स! ऋजुसूत्र नय के अभिप्राय से ऐसा कहा गया है, सभी नयों की अपेक्षा से नहीं।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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