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सप्तम स्थान
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वायुकायिक, इन चारों जीव-निकायों का सम्यक् ज्ञान नहीं होता है। वह इन चार जीव-निकायों पर मिथ्यादण्ड का प्रयोग करता है। यह सातवां विभंगज्ञान है।
विवेचन- मति श्रुत और अवधिज्ञान मिथ्यादर्शन के संसर्ग के कारण विपर्यय रूप भी होते हैं। अभिप्राय यह कि मिथ्यादृष्टि के उक्त तीनों ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाते हैं। जिनमें से आदि के दो ज्ञानों को कुमति और कुश्रुत कहा जाता है और अवधिज्ञान को कुअवधि या विभंगज्ञान कहते हैं । मति और श्रुत ये दो ज्ञान एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी संसारी जीवों में हीनाधिक मात्रा में पाये जाते हैं। किन्तु अवधिज्ञान संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को ही होता है।
__ अवधिज्ञान के दो भेद होते हैं—भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्तक। भवप्रत्यय अवधि देव और नारकी जीवों को जन्मजात होता है। किन्तु क्षयोपशमनिमित्तक अवधि मनुष्य और तिर्यंचों को तपस्या, परिणाम-विशुद्धि आदि विशेष कारण मिलने पर अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। यद्यपि देव और नारकी जीवों का अवधिज्ञान भी तदावरण कर्म के क्षयोपशम से ही जनित हैं, किन्तु वहाँ अन्य बाह्य कारण के अभाव में ही मात्र भव के निमित्त से क्षयोपशम होता है। अतः सभी को होता है। उसे भवप्रत्यय कहते हैं। किन्तु संज्ञी मनुष्य और तिर्यंचों के तपस्या आदि बाह्य कारण विशेष मिलने पर ही वह होता है, अन्यथा नहीं। अतः उसे क्षयोपशमनिमित्तक या गुणप्रत्यय कहते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में तीन गति के जीवों को होने वाले अवधिज्ञान की चर्चा नहीं की गई है। किन्तु कोई श्रमणमाहन बाल-तप आदि साधना-विशेष करता है, उनमें से किसी-किसी को उत्पन्न होने वाले अवधिज्ञान का वर्णन किया गया है। जो व्यक्तिं सम्यग्दृष्टि होता है, उसे जितनी मात्रा में भी यह उत्पन्न होता है, वह उसके उत्पन्न होने पर प्रारम्भिक क्षणों में विस्मित तो अवश्य होता है. किन्त भ्रमित नहीं होता। एवं उसके पूर्व उसे जितना श्रतज्ञान से छह द्रव्य, सप्त तत्त्व और नव पदार्थों का परिज्ञान था, उस अर्हत्प्रज्ञप्त तत्त्व पर श्रद्धा रखता हुआ यह जानता है कि मेरे क्षयोपशम के अनुसार इतनी सीमा या मर्यादा वाला यह अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, अतः मैं उस सीमित क्षेत्रवर्ती पदार्थों को जानता हूँ। किन्तु यह लोक और उसमें रहने वाले पदार्थ असीम हैं, अतः उन्हें जिनप्ररूपित आगम के अनुसार ही जानता है।
किन्तु जो श्रमण-माहन मिथ्यादृष्टि होते हैं, उनके बालतप, संयम-साधना आदि के द्वारा जब जितने क्षेत्रवाला अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तब वे पूर्व श्रद्धान से या श्रुतज्ञान से विचलित हो जाते हैं और यह मानने लगते हैं कि जिस द्रव्य क्षेत्र काल और भव की सीमा में मुझे यह अतिशायी ज्ञान प्राप्त हुआ है, बस इतना ही संसार है और मुझे जो भी जीव या अजीव दिख रहे हैं, या पदार्थ दिखाई दे रहे हैं, वे इतने ही हैं। इसके विपरीत जो श्रमण-माहन कहते हैं, वह सब मिथ्या है। उनके इस 'लोकाभिगम' या लोक-सम्बन्धी ज्ञान को विभंगज्ञान कहा गया है।
टीकाकार ने सातों प्रकार के विभंगज्ञानों की विभंगता या मिथ्यापन का खुलासा करते हुए लिखा है कि पहले प्रकार में विभंगता शेष दिशाओं में लोक निषेध का कारण है। दूसरे प्रकार में विभंगता एक दिशा में लोक का निषेध करने से है, तीसरे प्रकार में विभंगता कर्मों के अस्तित्व को अस्वीकार करने से है। चौथे प्रकार में विभंगता जीव को पुद्गल-जनित मानने से है। पाँचवें प्रकार में विभंगता देवों की विक्रिया को देख कर उनके शरीर के पुद्गल-जनित