SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 609
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४२ उत्तरोत्तर घटता जाता है, वह हीयमान कहलाता है । ५. प्रतिपाती जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है, वह प्रतिपाती कहलाता है। ६. अप्रतिपाती — जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् नष्ट नहीं होता, केवलज्ञान की प्राप्ति तक विद्यमान रहता है, वह अप्रतिपाती कहलाता है (९९) । अवचन - सूत्र १०० णो कप्पड़ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा इमाई छ अवयणाइं वदित्तए, तं जहा— अलवणे, हीलियवयणे, खिंसितवयणे, फरुसवयणे, गारत्थियवयणे, विउसवितं वा पुणो उदीरित्तए । निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को ये छह अवचन (गर्हित वचन) बोलना नहीं कल्पता है, जैसे— २. हीलितवचन—अवहेलनायुक्त वचन । ९. अलीकवचन —— असत्यवचन । ३. खिंसितवचन— मर्मवेधी वचन । ४. परुषवचन— कठोर वचन । ५. अगारस्थितवचन— गृहस्थावस्था के सम्बन्धसूचक वचन । ६. व्यवसित उदीरकवचन — उपशान्त कलह को उभाडने वाला वचन (१००)। स्थानाङ्गसूत्रम् कल्प- प्रस्तार - सूत्र १०१– छं कप्पस्स पत्थारा पण्णत्ता, तं जहा —— पाणातिवायस्स वायं वयमाणे, मुसावायस्स वायं वयमाणे, अदिण्णादाणस्स वायं वयमाणे, अविरतिवायं वयमाणे, अपुरिसवायं वयमाणे, दासवायं वयमाणे—इच्चेते छ कप्पस्स पत्थारे पत्थारेत्ता सम्ममपडिपूरेमाणे तट्ठाणपत्ते । कल्प (साधु-आचार) के छह प्रस्तार ( प्रायश्चित्त-रचना के विकल्प) कहे गये हैं, जैसे— १. प्राणातिपात -सम्बन्धी आरोपात्मक वचन बोलने वाला । २. मृषावाद - सम्बन्धी आरोपात्मक वचन बोलने वाला। ३. अदत्तादान - सम्बन्धी आरोपात्मक वचन बोलने वाला । ४. अब्रह्मचर्य - सम्बन्धी आरोपात्मक वचन बोलने वाला । ५. पुरुषत्त्व - हीनता के आरोपात्मक वचन बोलने वाला । ६. दास होने का आरोपात्मक वचन बोलने वाला। कल्प के इन छह प्रस्तारों को स्थापित कर यदि कोई साधु उन्हें सम्यक् प्रकार से प्रमाणित न कर सके तो वह उस स्थान को प्राप्त होता है, अर्थात् आरोपित दोष के प्रायश्चित्त का भागी होता है (१०१)। विवेचन—–— साधु के आचार को कल्प कहा जाता है । प्रायश्चित्त की उत्तरोत्तर वृद्धि को प्रस्तार कहते हैं । प्राणातिपात-विरमण आदि के सम्बन्ध में कोई साधु किसी साधु को झूठा दोष लगावे कि तुमने यह पाप किया है, वह गुरु के सामने यदि सिद्ध नहीं कर पाता है, तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। पुनः वह अपने कथन को सिद्ध करने के लिए ज्यों-ज्यों असत् प्रयत्न करता है, त्यों-त्यों वह उत्तरोत्तर अधिक प्रायश्चित्त का भागी होता जाता 1 संस्कृत टीकाकार ने इसे एक दृष्टान्तपूर्वक इस प्रकार से स्पष्ट किया है—
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy