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________________ ५२६ स्थानाङ्गसूत्रम् है, वह अनात्मवान् कहलाता है। अनात्मवान् व्यक्ति के लिए दीक्षा-पर्याय या अधिक अवस्था, शिष्य या कुटुम्ब परिवार, श्रुत, तप और पूजा-सत्कार की प्राप्ति से अहंकार और ममकार भाव उत्तरोत्तर बढ़ता है, उससे वह दूसरों को हीन, अपने को महान् समझने लगता है। इस कारण से सब उत्तम योग भी उसके लिए पतन के कारण हो जाते हैं। किन्तु आत्मवान् के लिए सूत्र-प्रतिपादित छहों स्थान उत्थान और आत्म-विकास के कारण होते हैं, क्योंकि ज्यों-त्यों उसमें तप-श्रुत आदि की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों वह अधिक विनम्र एवं उदार होता जाता है। आर्य-सूत्र ___३४- छव्विहा जाइ-आरिया मणुस्सा पण्णत्ता, तं जहासंग्रहणी-गाथा अंबट्ठा य कलंदा य, वेदेहा वेदिगादिया । हरिता चुंचुणा चेव, छप्पेता इब्भजातिओ ॥१॥ जाति से आर्यपुरुष छह प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. अंबष्ठ, २. कलन्द, ३. वैदेह, ४. वैदिक, ५. हरित ६. चुंचुण, ये छहों इभ्यजाति के मनुष्य हैं (३४)। ३५- छव्विहा कुलारिया मणुस्सा पण्णत्ता, तं जहा—उगा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, णाता, कोरव्वा। कुल से आर्य मनुष्य छह प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. उग्र, २. भोज, ३. राजन्य, ४. इक्ष्वाकु, ५. ज्ञात, ६. कौरव (३५)। विवेचन- मातृ-पक्ष को जाति कहते हैं । जिन का मातृपक्ष निर्दोष और पवित्र हैं, वे पुरुष जात्यार्य कहलाते हैं। टीकाकार ने इनका कोई विवरण नहीं दिया है। अमर-कोष के अनुसार 'अम्बष्ठ' का अर्थ 'अम्बे तिष्ठतिअम्बष्ठः' तथा 'अम्बष्ठी वैश्या-द्विजन्मनोः' अर्थात् वैश्य माता और ब्राह्मण पिता से उत्पन्न हुई सन्तान को अम्बष्ठ कहते हैं। तथा ब्राह्मणी माता और वैश्य पिता से उत्पन्न हुई सन्तान वैदेह कहलाती है (ब्राह्मण्यां क्षत्रियात्सूतस्तस्यां वैदेहको विशः)। चुचुण का कोषों में कोई उल्लेख नहीं है, यदि इसके स्थान पर कुंकुण पद की कल्पना की जावे तो ये कोंकण देशवासी जाति है, जिनमें मातृपक्ष की आज भी प्रधानता है। कलंद और हरित जाति भी मातृपक्ष प्रधान रही है (३५)। संग्रहणी गाथा में इन छहों को 'इभ्यजातीय' कहा है। इभ का अर्थ हाथी होता है। टीकाकार के अनुसार जिसके पास धन-राशि इतनी ऊंची हो कि सूंड को ऊंची किया हुआ हाथी भी न दिख सके, उसे इभ्य कहा जाता था। इभ्य की इस परिभाषा से इतना तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्रजातीय माता की वैश्य से उत्पन्न सन्तान से इन इभ्य जातियों के नाम पड़े हैं। क्योंकि व्यापार करने वाले वैश्य सदा से ही धन-सम्पन्न रहे हैं। १. इभमर्हन्तीतीभ्याः । यद्-द्रव्यस्तूपान्तरित उच्छ्रितकन्दलिकादण्डो हस्ती न दृश्यते ते इभ्या इति श्रुतिः । (स्थानाङ्ग सूत्रपत्र ३४० A) 'इभ्य आढ्यो धनी' इत्यभरः ।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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