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स्थानाङ्गसूत्रम्
३. अनुभाषणाशुद्ध-प्रत्याख्यान- गुरु के बोलने के अनुसार प्रत्याख्यान-पाठ बोलना। ४. अनुपालनाशुद्ध-प्रत्याख्यान— विकट स्थिति में भी प्रत्याख्यान का निर्दोष पालन करना।
५. भावशुद्ध-प्रत्याख्यान— रागद्वेष से रहित होकर शुद्ध भाव से प्रत्याख्यान का पालन करना (२२१)। प्रतिक्रमण-सूत्र
२२२– पंचविहे पडिक्कमणे पण्णत्ते, तं जहा—आसवदारपडिक्कमणे, मिच्छत्तपडिक्कमणे, कसायपडिक्कमणे, जोगपडिक्कमणे, भावपडिक्कमणे।
प्रतिक्रमण पांच प्रकार का कहा गया है, जैसे१. आस्रवद्वार-प्रतिक्रमण— कर्मास्रव के द्वार हिंसादि से निवर्तन। २. मिथ्यात्व-प्रतिक्रमण-मिथ्यात्व से पुनःसम्यक्त्व में आना। ३. कषाय-प्रतिक्रमण- कषायों से निवृत्त होना। ४. योग-प्रतिक्रमण- मन, वचन, काय की अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्त होना।
५. भाव-प्रतिक्रमण— मिथ्यात्व आदि का कृत, कारित, अनुमोदना से त्यागकर शुद्धभाव से सम्यक्त्व में स्थिर रहना (२२२)। सूत्र-वाचना-सूत्र
२२३ – पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं वाएजा, तं जहा—संगहट्ठयाए, उवग्गहट्ठयाए, णिजरट्ठयाए, सुत्ते वा मे पज्जवयाते भविस्सति, सुत्तस्स वा अवोच्छित्तिणयट्ठयाए।
पांच कारणों से सूत्र की वाचना देनी चाहिए, जैसे१. संग्रह के लिए-शिष्यों को श्रुत-सम्पन्न बनाने के लिए। २. उपग्रह के लिए— भक्त-पान और उपकरणादि प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त कराने के लिए। ३. निर्जरा के लिए- कर्मों की निर्जरा के लिए। ४. वाचना देने से मेरा श्रुत परिपुष्ट होगा, इस कारण से। ५. श्रुत के पठन-पाठन की परम्परा अविच्छिन्न रखने के लिए (२२३)।
२२४- पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं सिक्खेजा, तं जहा—णाणट्ठयाए, दंसणट्ठयाए, चरित्तट्ठयाए, वुग्गहविमोयणट्ठयाए, अहत्थे वा भावे जाणिस्सामीतिकटु।
पांच कारणों से सूत्र को सीखना चाहिए, जैसे१. ज्ञानार्थ-नये नये तत्त्वों के परिज्ञान के लिए। २. दर्शनार्थ- श्रद्धान के उत्तरोत्तर पोषण के लिए। ३. चारित्रार्थ— चारित्र की निर्मलता के लिए। ४. व्युद्-ग्रहविमोचनार्थ— दूसरों के दुराग्रह को छुड़ाने के लिए। ५. यथार्थ-भाव-ज्ञानार्थ— सूत्रशिक्षण से मैं यथार्थ भावों को जानूंगा, इसलिए।