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पंचम स्थान तृतीय उद्देश
५०५ ___ २११– जुगसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा—चंदे, चंदे, अभिवड्डिते, चंदे, अभिवड्डिते चेव।
युगसंवत्सर पांच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे
१. चन्द्र-संवत्सर, २. चन्द्र-संवत्सर, ३. अभिवर्धित-संवत्सर, ४. चन्द्र-संवत्सर, ५. अभिवर्धित-संवत्सर (२११)।
२१२- पमाणसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा–णक्खत्ते, चंदे, उऊ, आदिच्चे, अभिवड्डिते। प्रमाण-संवत्सर पांच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे
१. नक्षत्र-संवत्सर, २. चन्द्र-संवत्सर, ३. ऋतु-संवत्सर, ४. आदित्य-संवत्सर, ५. अभिवर्धित-संवत्सर (२१२)।
२१३- लक्खणसंवच्छरे, पंचविहे पण्णत्ते, तं जहासंग्रहणी-गाथाएँ
समगं णक्खत्ता जोगं जोयंति समगं उदू परिणमंति । णच्चुण्हं णातिसीतो, बहूदओ होति णक्खत्तो ॥१॥ ससिसगलपुण्णमासी, जोएइ विसमचारिणक्खत्ते । कडुओ बहूदओ वा, तमाहु संवच्छरं चंदं ॥२॥ विसमं पवालिणो परिणमंति अणुदूसू देंति पुष्फफलं । वासं णं सम्म वासति, तमाहु संवच्छरं कम्मं ॥३॥ पुडविदगाणं तु रसं, पुप्फफलाणं तु देइ आदिच्चो । अप्पेणवि वासेणं, सम्मं णिप्फजए सासं ॥ ४॥ आदिच्चतेयतविता, खणलवदिवसा उऊ परिणति ।।
पुरिंति रेणु थलयाई, तमाहु अभिवढितं जाण ॥ ५॥ लक्षण-संवत्सर पांच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. नक्षत्र-संवत्सर, २. चन्द्र-संवत्सर, ३. कर्म-(ऋतु) संवत्सर, ४. आदित्य-संवत्सर, ५. अभिवर्धित
संवत्सर (२१३)।
विवेचन– उपर्युक्त चार सूत्रों में अनेक प्रकार के संवत्सरों (वर्षों) का और उनके भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। संस्कृत टीकाकार के अनुसार उनका विवरण इस प्रकार है
१. नक्षत्र-संवत्सर- जितने समय में चन्द्रमा नक्षत्र-मण्डल का एक बार परिभोग करता है, उतने काल को नक्षत्रमास कहते हैं। नक्षत्र २७ होते हैं, अतः नक्षत्र मास २७.१/६७ दिन का होता है। यतः १२ मास का संवत्सर (वर्ष) होता है, अतः नक्षत्र-संवत्सर में (२७.१/६७ x १२) = ३२७.५१/६७ दिन होते हैं।
२. युग-संवत्सर-पांच संवत्सरों का एक युग माना जाता है। इसमें तीन चन्द्र-संवत्सर और दो अभिवर्धित