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________________ [४८] संस्कार को समाप्त करते हैं। (८) जब तथागत निर्वाण को प्राप्त होते हैं। स्थानांग२७० में चक्रवर्ती के चौदह रत्नों का उल्लेख हैं तो दीघनिकाय में चक्रवर्ती के सात रत्नों का उल्लेख है। स्थानांगरे७२ में बुद्ध के तीन प्रकार बताये हैं—ज्ञानबुद्ध, दर्शनबुद्ध और चारित्रबुद्ध तथा स्वयंबुद्ध, प्रत्येकबुद्ध और बोधित। अंगुत्तरनिकाय७३ में बुद्ध के तथागतबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध ये दो प्रकार बताये हैं। स्थानांगर में स्त्री के चारित्र का वर्णन करते हुए चतुर्भंगी बतायी है। वैसे ही अंगुत्तरनिकायरे में भार्या की सप्तभंगी बतायी है—(१) वधक के समान, (२) चोर के समान, (३) अय्य के समान, (४) अकर्मकामा, (५) आलसी, (६) चण्डी, (७) दुरुक्तवादिनी। माता के समान, भगिनी के समान, सखी के समान, दासी के समान, स्त्री के ये अन्य प्रकार भी बताये हैं। स्थानांग' में चार प्रकार के मेघ बताये हैं—(१).गर्जना करते हैं पर बरसते नहीं है। (२) गर्जते नहीं हैं, बरसते हैं। (३) गर्जते हैं, बरसते हैं। (४) गर्जते भी नहीं, बरसते भी नहीं है। अंगुत्तरनिकाय में प्रत्येक भंग में पुरुष को घटाया है—(१) बहुत बोलता है पर करता कुछ नहीं है। (२) बोलता नहीं है पर करता है। (३) बोलता भी नहीं है करता भी नहीं। (४) बोलता भी है और करता भी है। इस प्रकार गर्जना और बरसना रूप चतुर्भंगी अन्य रूप से घटित की गई है। स्थानांगरे में कुम्भ के चार प्रकार बताये हैं—(१) पूर्ण और अपूर्ण, (२) पूर्ण और तुच्छ, (३) तुच्छ और पूर्ण, (४) तुच्छ और अतुच्छ। इसी तरह कुछ प्रकारान्तर से अंगुत्तरनिकाय में भी कुम्भ की उपमा पुरुष चतुर्भगी से घटित की है—(१) तुच्छ खाली होने पर ढक्कन होता है। (२) भरा होने पर ढक्कन नहीं होता। (३) तुच्छ होता है पर ढक्कन नहीं होता। भरा हुआ होता है पर ढक्कन नहीं होता। (१) जिसकी वेश-भूषा तो सुन्दर है किन्तु जिसे आर्यसत्य का परिज्ञान नहीं है, वह प्रथम कुम्भ के सदृश है। (२) आर्यसत्य का परिज्ञान होने पर भी बाह्य आकार सुन्दर नहीं है तो वह द्वितीय कुम्भ के समान है। (३) बाह्य आकार भी सुन्दर नहीं और आर्यसत्य का परिज्ञान भी नहीं है। (४) आर्यसत्य का भी परिज्ञान है और बाह्य आकार भी सुन्दर है, वह तीसरे-चौथे कुंभ के समान है। स्थानांग२८० में साधना के लिये शल्य-रहित होना आवश्यक माना है। मज्झिमनिकाय८१ में तष्णा के लिये शल्य शब्द का प्रयोग हुआ है और साधक को उससे मुक्त होने के लिए कहा गया है। स्थानांगरे८२ में नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति का वर्णन है। मज्झिमनिकाय८३ में पाँच गतियाँ बताई हैं। नरक, तिर्यक, प्रेत्यविषयक, मनुष्य और देवता। जैन आगमों में २७०. स्थानांगसूत्र, ७ २७१. दीघनिकाय, १७ २७२. स्थानांग, ३/१५६ २७३. अंगुत्तरनिकाय, २/६/५ २७४. स्थानांग, २७९ २७५. अंगुत्तरनिकाय, ७/५९ २७६. स्थानांग, ४/३४६ २७७. अंगुत्तरनिकाय, ४/११० २७८. स्थानांग, ४/३६० २७९. अंगुत्तरनिकाय, ४/१०३ २८०. स्थानांग, सूत्र १८२ २८१. मज्झिमनिकाय, ३-१-५ २८२. स्थानांग, स्थान ४ २८३. मज्झिमनिकाय, १-२-२
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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