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________________ [४७] स्थानांगरे५६ में सुगत के तीन प्रकार बताये हैं- (१) सिद्धिसुगत, (२) देवसुगत, (३) मनुष्यसुगत। अंगुत्तरनिकाय में भी राग-द्वेष और मोह को नष्ट करने वाले को सुगत कहा है ।२५७ स्थानांग के अनुसार२५८ पाँच कारणों से जीव दुर्गति में जाता है। वे कारण हैं—(१) हिंसा, (२) असत्य, (३) चोरी, (४) मैथुन, (५) परिग्रह । अंगुत्तरनिकाय२५९ में नरक जाने के कारणों पर चिन्तन करते हुए लिखा है—अकुशल कायकर्म, अकुशल वाक्कर्म, अकुशल मनःकर्म, सावद्य आदि कर्म।। श्रमण के लिए स्थानांगरे६० में छह कारणों से आहार करने का उल्लेख है—(१) क्षुधा की उपशान्ति, (२) वैयावृत्त्य, (३) ईर्याशोधन, (४) संयमपालन, (५) प्राणधारण, (६) धर्मचिन्तन । अंगुत्तरनिकाय में आनन्द ने एक श्रमणी को इसी तरह का उपदेश दिया है।६१ स्थानांगरे६२ में इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मात्भय, वेदनाभय, मरणभय, अश्लोकभय, आदि भयस्थान बताये हैं तो अंगुत्तरनिकाय२६३ में भी जाति, जन्म, जरा, व्याधि, मरण, अग्नि, उदक, राज, चोर, आत्मानुवाद—अपने दुश्चरित का विचार (दूसरे मुझे दुश्चरित्रवान् कहेंगे यह भय), दण्ड, दुर्गति, आदि अनेक भयस्थान बताये हैं। स्थानांगसूत्र२६४ में बताया है कि मध्यलोक में चन्द्र, सूर्य, मणि, ज्योति, अग्नि आदि से प्रकाश होता है। अंगुत्तरनिाकयो६५ में आभा, प्रभा, आलोक, प्रज्योत, इन प्रत्येक के चार-चार प्रकार बताये हैं—चन्द्र, सूर्य, अग्नि और प्रज्ञा । स्थानांगर६६ में लोक को चौदह रज्जु कहकर उसमें जीव और अजीव द्रव्यों का सद्भाव बताया है। वैसे ही अंगुत्तरनिकाय२६७ में भी लोक को अनन्त कहा है। तथागत बुद्ध ने कहा है—पाँच कामगुण रूप रसादि यही लोक है। और जो मानव पाँच कामगुणों का परित्याग करता है, वही लोक के अन्त में पहुंच कर वहाँ पर विचरण करता है। स्थानांगरे६८ में भूकम्प के तीन कारण बताये हैं—(१) पृथ्वी के नीचे का घनवात व्याकुल होता है। उससे समुद्र में तुफान आता है। (२) कोई महेश महोरग देव अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन करने के लिए पृथ्वी को चलित करता है। (३) देवासुर संग्राम जब होता है तब भकम्प आता है। अंगत्तरनिकाय६९ में भकम्प के आठ कारण बताये हैं (१) पथ्वी के नीचे की महावाय के प्रकम्पन से उस पर रही हुई पृथ्वी प्रकम्पित होती है। (२) कोई श्रमण ब्राह्मण अपनी ऋद्धि के बल से पृथ्वी भावना को करता है। (३) जब बोधिसत्व माता के गर्भ में आते हैं। (४) जब बोधिसत्व माता के गर्भ से बाहर आते हैं। (५) जब तथागत अनुत्तर ज्ञान-लाभ प्राप्त करते हैं। (६) जब तथागत धर्म-चक्र का प्रवर्तन करते हैं। (७) जब तथागत आय २५६. स्थानांगसूत्र १८४ २५७. अंगुत्तरनिकाय, ३/७२ २५८. स्थानांग, ३९१ २५९. अंगुत्तरनिकाय, ३/७२ २६० स्थानांग, ५०० २६१. अंगुत्तरनिकाय, ४/१५९ २६२. स्थानांग, ५४९ २६३. अंगुत्तरनिकाय, ४/११९ २६४. स्थानांग, स्थान ४ २६५. अंगुत्तरनिकाय, ४/१४१, १४५ २६६. स्थानांगसूत्र ८ २६७. अंगुत्तरनिकाय, ८७० २६८. स्थानांग, ३ २६९. अंगुत्तरनिकाय, ४/१४१, १४५
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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