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________________ ४२४ स्थानाङ्गसूत्रम् बन्ध या उपार्जन नहीं होता है, अतः यहाँ पर सरागसंयम को देवायु के बन्ध का कारण कहा गया है। यद्यपि सरागसंयम छठे गुणस्थान से लेकर दशवें गुणस्थान तक होता है, किन्तु सातवें गुणस्थान से ऊपर के संयमी देवायु का बन्ध नहीं करते हैं, क्योंकि वहाँ आयु का बन्ध ही नहीं होता। अतः छठे-सातवें गुणस्थान का सरागसंयम ही देवायु के बन्ध का कारण होता है। श्रावक के अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत रूप एकदेशसंयम को संयमासंयम कहते हैं । यह पंचम गुणस्थान में होता है। त्रसजीवों की हिंसा के त्याग की अपेक्षा पंचम गुणस्थानवर्ती के संयम है और स्थावरजीवों की हिंसा का त्याग न होने से असंयम है, अतः उसके आंशिक या एकदेशसंयम को संयमासंयम कहा जाता है। मिथ्यात्वी जीवों के तप को बालतप कहते हैं । पराधीन होने से भूख-प्यास के कष्ट सहन करना, पर-वश ब्रह्मचर्य पालना, इच्छा के बिना कर्म-निर्जरा के कारणभूत कार्यों को करना अकामनिर्जरा कहलाती है। इन चार कारणों में से आदि के दो कारण अर्थात् सराग-संयम और संयमासंयम वैमानिक-देवायु के कारण हैं और अन्तिम दो कारण भवनत्रिक (भवनपति, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क) देवों में उत्पत्ति के कारण जानना चाहिए। यहाँ इतना और विशेष ज्ञातव्य है कि यदि जीव के आयुर्बन्ध के विभाग का अवसर है, तो उक्त कार्यों को करने से उस-उस आयुष्क-कर्म का बन्ध होगा। यदि त्रिभाग का अवसर नहीं है तो उक्त कार्यों के द्वारा उस-उस गति नामकर्म का बन्ध होगा। वाद्य-नृत्यादि-सूत्र ६३२- चउव्विहे वजे पण्णत्ते, तं जहा तते, वितते, घणे, झुसिरे। वाद्य (बाजे) चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. तत (वीणा आदि), २. वितत (ढोल आदि) ३. घन (कांस्य ताल आदि), ४. शुषिर (बांसुरी आदि) (६३२)। ६३३— चउव्विहे णट्टे पण्णत्ते, तं जहा—अंचिए, रिभिए, आरभडे, भसोले। नाट्य (नृत्य) चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. अंचित नाट्य ठहर-ठहर कर या रुक-रुक कर नाचना। २. रिभित नाट्य-संगीत के साथ नाचना। ३. आरभट नाटय— संकेतों से भावाभिव्यक्ति करते हुए नाचना। ४. भषोल नाट्य- झुक कर या लेट कर नाचना (६३३)। ६३४- चउव्विहे गेए पण्णत्ते, तं जहा—उक्खित्तए, पत्तए, मंदए, रोविंदए। गेय (गायन) चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. उत्क्षिप्तक गेय— नाचते हुए गायन करना। २. पत्रक गेय- पद्य-छन्दों का गायन करना, उत्तम स्वर से छन्द बोलना। ३. मन्द्रक गेय- मन्द-मन्द स्वर से गायन करना। ४. रोविन्दक गेय— शनैः शनैः स्वर को तेज करते हुए गायन करना (६३४)।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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