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चतुर्थ स्थान – चतुर्थ उद्देश
४२३ धर्मद्वार-सूत्र
६२७- चत्तारि धम्मदारा पण्णत्ता, तं जहा—खंती, मुत्ती, अजवे, मद्दवे। धर्म के चार द्वार कहे गये हैं, जैसे१. क्षान्ति (क्षमाभाव), २. मुक्ति (निर्लोभिता),
३. आर्जव (सरलता), ४. मार्दव (मृदुता) (६२७)। आयुर्बन्ध-सूत्र
६२८ – चउहिं ठाणेहिं जीवा जेरइयाउयत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा—महारंभताए, महापरिग्गहयाए, पंचिंदियवहेणं, कुणिमाहारेणं।
चार कारणों से जीव नारकायुष्क योग्य कर्म उपार्जन करते हैं, जैसे१. महा आरम्भ से, २. महा परिग्रह से, ३. पंचेन्द्रिय जीवों का वध करने से, ४. कुणप आहार से (मांसभक्षण करने से) (६२८)।
६२९– चउहिं ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणिय [आउय ?] त्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा—माइल्लताए, णियडिल्लताए, अलियवयणेणं, कूडतुलकूडमाणेणं।
चार कारणों से जीव तिर्यगायुष्क कर्म का उपार्जन करते हैं, जैसे— १. मायाचार से, २. निकृतिमत्ता से अर्थात् दूसरों को ठगने से, ३. असत्य वचन से, ४. कूटतुला— कूटमान से (घट-बढ़ तोलने-नापने से) (६२९)।
६३०- चउहि ठाणेहिं जीवा मणुस्साउयत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा—पगतिभहताए, पगतिविणीययाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरिताए।
चार कारणों से जीव मनुष्यायुष्क कर्म का उपार्जन करते हैं, जैसे१. प्रकृति-भद्रता से, २. प्रकृति-विनीतता से, ३. सानुक्रोशता से (दयालुता और सहृदयता से), ४. अमत्सरित्व से (मत्सर-भाव न रखने से) (६३०)।
६३१- चउहि ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामणिजराए।
चार कारणों से जीव देवायुष्क कर्म का उपार्जन करते हैं, जैसे१. सरागसंयम से, २. संयमासंयम से, ३. बालतप करने से, ४. अकामनिर्जरा से (६३१)।
विवेचन– हिंसादि पांचों पापों के सर्वथा त्याग करने को संयम कहते हैं। उसके दो भेद हैं—सरागसंयम और वीतरागसंयम। जहाँ तक सूक्ष्म राग भी रहता है—ऐसे दशवें गुणस्थान तक का संयम सरागसंयम कहलाता है और उसके उपरिम गुणस्थानों का संयम वीतरागसंयम कहा जाता है। यतः वीतरागसंयम से देवायुष्क कर्म का भी