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________________ ४०० स्थानाङ्गसूत्रम् २. कोई असुर राक्षसियों के साथ संवास करता है। ३. कोई राक्षस असुरियों के साथ संवास करता है। ४. कोई राक्षस राक्षसियों के साथ संवास करता है (५६३)। ५६४- चउव्विधे संवासे पण्णत्ते, तं जहा—असुरे णाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति, असुरे णाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छति, मणुस्से णाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति, मणुस्से णाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छति। पुनः संवास चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. कोई असुर असुरियों के साथ संवास करता है। २. कोई असुर मानुषी स्त्रियों के साथ संवास करता है। ३. कोई मनुष्य असुरियों के साथ संवास करता है। ४. कोई मनुष्य मानुषी स्त्रियों के साथ संवास करता है (५६४)। ५६५– चउव्विधे संवासे पण्णत्ते, तं जहा रक्खसे णाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति, रक्खसे णाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छति, मणुस्से णाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति, मणुस्से णाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छति। पुनः संवास चार प्रकार का कहा गया है, जैसे— १. कोई राक्षस राक्षसियों के साथ संवास करता है। २. कोई राक्षस मानुषी स्त्रियों के साथ संवास करता है। ३. कोई मनुष्य राक्षसियों के साथ संवास करता है। ४. कोई मनुष्य मानुषी स्त्रियों के साथ संवास करता है (५६५)। अपध्वंस-सूत्र ५६६- चउव्विहे अवद्धंसे पण्णत्ते, तं जहा—आसुरे, आभिओगे, संमोहे, देवकिब्बिसे। अपध्वंस (चारित्र का विनाश) चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. आसुर-अपध्वंस, २. आभियोग-अपध्वंस, ३. सम्मोह-अपध्वंस, ४. देवकिल्विष-अपध्वंस (५६६)। विवेचन-शुद्ध तपस्या का फल निर्वाण-प्राप्ति है, शुभ तपस्या का फल स्वर्ग-प्राप्ति है। किन्तु जिस तपस्या में किसी जाति की आकांक्षा या फल-प्राप्ति की वांछा संलग्न रहती है, वह तपः साधना के फल से देवयोनि में तो उत्पन्न होता है, किन्तु आकांक्षा करने से नीच जाति के भवनवासी आदि देवों में उत्पन्न होता है। जिन अनुष्ठानों या क्रियाविशेषों को करने से साधक असुरत्व का उपार्जन करता है, वह आसुरी भावना कही गई है। जिन अनुष्ठानों से साधक आभियोग जाति के देवों में उत्पन्न होता है, वह आभियोग-भावना है, जिन अनुष्ठानों से साधक सम्मोहक देवों में उत्पन्न होता है, वह सम्मोही भावना है और जिन अनुष्ठानों से साधक किल्विष देवों में उत्पन्न होता है, वह देवकिल्विषी भावना है। वस्तुत: ये चारों ही भावनाएं चारित्र के अपध्वंस (विनाशरूप) हैं, अतः अपध्वंस के चार
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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