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________________ चतुर्थ स्थान– चतुर्थ उद्देश ३८९ पुक्खलसंवट्टए णं महामेहे एगेणं वासेणं दसवाससहस्साई भावेति। पन्जुण्णे णं महामेहे एगेणं वासेणं दसवाससयाई भावेति। जीमूते णं महामेहे एगेणं वासेणं दसवासाइं भावेति। जिम्मे णं महामेहे बहूहिं वासेहिं एगं वासं भावेति वा णं वा भावेति। मेघ चार प्रकार के होते हैं, जैसे१. पुष्कलावर्तमेघ, २. प्रद्युम्नमेघ, ३. जीमूतमेघ, ४. जिम्हमेघ। १. पुष्कलावर्त महामेघ एक वर्षा से दश हजार वर्ष तक भूमि को जल से स्निग्ध (उपजाऊ) कर देता है। २. प्रद्युम्न महामेघ एक वर्षा से दश सौ (एक हजार) वर्ष तक भूमि को जल से स्निग्ध कर देता है। ३. जीमूत महामेघ एक वर्षा से दश वर्ष तक भूमि को जल से स्निग्ध कर देता है। ४. जिम्ह महामेघ बहुत बार बरस कर एक वर्ष तक भूमि को जल से स्निग्ध करता है, और नहीं भी करता है (५४०)। विवेचन– यद्यपि मूल-सूत्र में पुष्कलावर्त आदि मेघों के समान चार प्रकार के पुरुषों का कोई उल्लेख नहीं है, तथापि टीकाकार ने उक्त चारों प्रकार के मेघों के समान पुरुषों के स्वयं जान लेने की सूचना अवश्य की है, जिसे इस प्रकार से जानना चाहिए १. कोई दानी या उपदेष्टा पुरुष पुष्कलावर्त मेघ के समान अपने एक बार के दान से या उपदेश से बहुत लम्बे काल तक अर्थी—याचकों को और जिज्ञासुओं को तृप्त कर देता है। २. कोई दानी या उपदेष्टा पुरुष प्रद्युम्न मेघ के समान बहुत काल तक अपने दान या उपदेश से अर्थी और जिज्ञासुओं को तृप्त कर देता है। ३. कोई दानी या उपदेष्टा पुरुष जीमूत मेघ के समान कुछ वर्षों के लिए अपने दान या उपदेश से अर्थी और जिज्ञासुओं को तृप्त करता है। ४. कोई दानी या उपदेष्टा पुरुष अपने अनेक बार दिये गये दान या उपदेश से अर्थी और जिज्ञासु जनों को एक वर्ष के लिए तृप्त करता है और कभी तृप्त कर भी नहीं पाता है। भावार्थ — जैसे चारों प्रकार के मेघों का प्रभाव उत्तरोत्तर अल्प होता जाता है उसी प्रकार दानी या उपदेष्टा के दान या उपदेश की मात्रा और प्रभाव उत्तरोत्तर अल्प होता जाता है। आचार्य-सूत्र ५४१– चत्तारि करंडगा पण्णत्ता, तं जहा—सोवागकरंडए, वेसियाकरंडए, गाहावतिकरंडए, रायकरंडए। एवामेव चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा— सोवागकरंडगसमाणे, वेसियाकरंडगसमाणे, गाहावतिकरडंगसमाणे, रायकरंडगसमाणे। करण्डक चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे— १. श्वपाककरण्डक, २. वेश्याकरण्डक, ३. गृहपतिकरण्डक, ४. राजकरण्डक। इसी प्रकार आचार्य भी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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