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जाति (जन्म) से आशीविष जीव चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे—
१. जाति - आशीविष वृश्चिक, २. जाति - आशीविष मेंढक,
३. जाति - आशीविष सर्प, ४. जाति - आशीविष मनुष्य (५१४) ।
स्थानाङ्गसूत्रम्
विवेचन — आशी का अर्थ दाढ़ है । जाति अर्थात् जन्म से ही जिनकी दाढ़ों में विष होता है, उन्हें जातिआशीविष कहा जाता है। यद्यपि वृश्चिक (बिच्छू) की पूंछ में विष होता है, किन्तु जन्म-जात विषवाला होने से उसकी भी गणना जाति-आशीविषों के साथ की गई है।
प्रश्न- भगवन् ! जाति - आशीविष वृश्चिक के विष में कितना सामर्थ्य होता है ?
उत्तर— गौतम ! जाति-आशीविष वृश्चिक अपने विष के प्रभाव से अर्ध भरतक्षेत्र - प्रमाण (लगभग दो सौ तिरेसठ योजन वाले) शरीर को विष- परिणत और विदलित करने के लिए समर्थ है। इतना उसके विष का सामर्थ्य है । किन्तु न कभी उसने अपने इस सामर्थ्य का उपयोग भूतकाल में किया है, न वर्तमान में करता है और न भविष्य में कभी करेगा।
प्रश्न- भगवन् ! जाति- आशीविष मेंढक के विष में कितना सामर्थ्य है ?
उत्तर— गौतम ! जाति- आशीविष मेंढक अपने विष के प्रभाव से भरत क्षेत्र प्रमाण शरीर को विष - परिणत और विदलित करने के लिए समर्थ है। इतना उसके विष का सामर्थ्य है। किन्तु न कभी उसने अपने इस सामर्थ्य का उपयोग भूतकाल में किया है, न वर्तमान में करता है और न भविष्य में करेगा ।
प्रश्न- भगवन् ! जाति- आशीविष सर्प के विष का कितना सामर्थ्य है ?
उत्तर— गौतम! जाति-आशीविष सर्प अपने विष के प्रभाव से जम्बूद्वीप प्रमाण (एक लाख योजन वाले ) शरीर को विष - परिणत और विदलित करने के लिए समर्थ है। इतना उसके विष का सामर्थ्य मात्र है । किन्तु न कभी उसने इस सामर्थ्य का उपयोग भूतकाल में किया है, न वर्तमान में करता है और न भविष्य में करेगा ।
प्रश्न- भगवन् ! जाति- आशीविष मनुष्य के विष का कितना सामर्थ्य है ?
उत्तर- गौतम ! जाति- आशीविष मनुष्य अपने विष के प्रभाव से समयक्षेत्र- प्रमाण (पैंतालीस लाख योजन वाले) शरीर को विष- परिणत और विदलित करने के लिए समर्थ है। इतना उसके विष का सामर्थ्य है, किन्तु न कभी उसने इस सामर्थ्य का उपयोग भूतकाल में किया है, न वर्तमान में करता है और न भविष्य में कभी करेगा। विवेचन — प्रकृत सूत्र में जिन चार प्रकार के आशीविष जीवों के विष के सामर्थ्य का निरूपण किया गया है, वे सभी जीव आगम-प्ररूपित उत्कृष्ट शरीरावगाहना वाले जानने चाहिए। मध्यम या जघन्य अवगाहना वालों के विष में इतना सामर्थ्य नहीं होता ।
व्याधि-चिकित्सा-सूत्र
५१५ - चउव्विहे वाही पण्णत्ते, तं जहा वातिए, पित्तिए, सिंभिए, सण्णिवातिए ।
व्याधियाँ चार प्रकार की कही गई हैं, जैसे—
१. वातिक— वायु के विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि ।
२. पैत्तिक— पित्त के विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि ।