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________________ चतुर्थ स्थान– तृतीय उद्देश ३६१ २. रूपसम्पन्न, न जातिसम्पन्न — कोई पुरुष रूपसम्पन्न तो होता है, किन्तु जातिसम्पन्न नहीं होता। ३. जातिसम्पन्न भी, रूपसम्पन्न भी— कोई पुरुष जातिसम्पन्न भी होता है और रूपसम्पन्न भी होता है। ४. न जातिसम्पन्न, न रूपसम्पन्न – कोई पुरुष न जातिसम्पन्न ही होता है और न रूपसम्पन्न ही होता है (४७२)। ४७३- चत्तारि [प ?] कंथगा पण्णत्ता, तं जहा—जातिसंपण्णे णाममेगे णो जयसंपण्णे ४।[जयसंपण्णे णाममेगे णो जातिसंपण्णे, एगे जातिसंपण्णेवि जयसंपण्णेवि, एगे णो जातिसंपण्णे णो जयसंपण्णे]। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—जातिसंपण्णे ४। [णाममेगे णो जयसंपण्णे, जयसंपण्णे णाममेगे णो जातिसंपण्णे, एगे जातिसंपण्णेवि जयसंपण्णेवि, एगे णो जातिसंपण्णे णो जयसंपण्णे]। पुनः घोड़े चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे १. जातिसम्पन्न, न जयसम्पन्न — कोई घोड़ा जातिसम्पन्न होता है, किन्तु जयसम्पन्न नहीं होता (युद्ध में विजय नहीं पाता)। . .२. जयसम्पन्न, न जातिसम्पन्न – कोई घोड़ा जयसम्पन्न तो होता है, किन्तु जातिसम्पन्न नहीं होता। ३. जातिसम्पन्न भी, जयसम्पन्न भी— कोई घोड़ा जातिसम्पन्न भी होता है और जयसम्पन्न भी होता है। ४. न जातिसम्पन्न, न जयसम्पन्न – कोई घोड़ा न जातिसम्पन्न ही होता है और न जयसम्पन्न ही होता है। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. जातिसम्पन्न, न जयसम्पन्न – कोई पुरुष जातिसम्पन्न होता है, किन्तु जयसम्पन्न नहीं होता। २. जयसम्पन्न, न जातिसम्पन्न — कोई पुरुष जयसम्पन्न तो होता है, किन्तु जातिसम्पन्न नहीं होता। ३. जातिसम्पन्न भी, जयसम्पन्न भी— कोई पुरुष जातिसम्पन्न भी होता है और जयसम्पन्न भी होता है। ४. न जातिसम्पन्न, न जयसम्पन्न – कोई पुरुष न जातिसम्पन्न ही होता है और न जयसम्पन्न ही होता है(४७३)। कुल-सूत्र ४७४— एवं कुलसंपण्णेण य बलसंपण्णेण य, कुलसंपण्णेण य रूवसंपण्णेण य, कुलसंपण्णेण य जयसंपण्णेण य, एवं बलसंपण्णेण य रूवसंपण्णेण य, बलसंपण्णेण जयसंपण्णेण ४ सव्वत्थ पुरिसजाया पडिवक्खो [चत्तारि पकंथगा पण्णत्ता, तं जहा–कुलसंपण्णे णाममेगे णो बलसंपण्णे, बलसंपण्णे णाममेगे णो कुलसंपण्णे, एगे कुलसंपण्णेवि बलसंपण्णेवि, एगे णो कुलसंपण्णे णो बलसंपण्णे]। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा कुलसंपण्णे णाममेगे णो बलसंपण्णे, बलसंपण्णे णाममेगे णो कुलसंपण्णे, एगे कुलसंपण्णेवि बलसंपण्णेवि, एगे णो कुलसंपण्णे णो बलसंपण्णे।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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