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चतुर्थ स्थान-तृतीय उद्देश
पुनः प्रकन्थक–घोड़े चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे
१. आकीर्ण और आकीर्णविहारी— कोई घोड़ा पहले भी आकीर्ण होता है और आकीर्णविहारी भी होता है अर्थात् आरोही पुरुष को उत्तम रीति से ले जाता है।
२. आकीर्ण और खलुंकविहारी— कोई घोड़ा आकीर्ण होकर भी खलुंकविहारी होता है, अर्थात् आरोही को मार्ग में अड़-अड़ कर परेशान करता है।
३. खलुक और आकीर्णविहारी--कोई घोड़ा पहले खलुंक होता है, किन्तु पीछे आकीर्णविहारी हो जाता है। ४. खलुंक और खलुंकविहारी— कोई घोड़ा खलुक भी होता है और खलुंकविहारी भी होता है। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. आकीर्ण और आकीर्णविहारी—कोई पुरुष बुद्धिमान् होता है और बुद्धिमानों के समान व्यवहार करता है। २. आकीर्ण और खलुंकविहारी—कोई पुरुष बुद्धिमान् तो होता है, किन्तु मूल् के समान व्यवहार करता है।
३. खलुक और आकीर्णविहारी- कोई पुरुष मन्दबुद्धि तो होता है, किन्तु बुद्धिमानों के समान व्यवहार करता है।
___४. खलुंक और खलुंकविहारी— कोई पुरुष मूर्ख होता है और मूर्तों के समान ही व्यवहार करता है (४६९)। जाति-सूत्र
४७०- चत्तारि पकंथगा पण्णत्ता, तं जहा—जातिसंपण्णे णाममेगे णो कुलसंपण्णे ४। [कुलसंपण्णे णाममेगे णो जातिसंपण्णे, एगे जातिसंपण्णेवि कुलसंपण्णेवि, एगे णो जातिसंपण्णे णो कुलसंपण्णे]।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा जातिसंपण्णे णाममेगे चउभंगो।[णो कुलसंपण्णे, कुलसंपण्णे णाममेगे णो जातिसंपण्णे, एगे जातिसंपण्णेवि कुलसंपण्णेवि, एगे णो जातिसंपण्णे णो कुलसंपण्णे]।
घोड़े चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे
१. जातिसम्पन्न, न कुलसम्पन्न – कोई घोड़ा जातिसम्पन्न (उत्तम मातृपक्षवाला) तो होता है, किन्तु कुलसम्पन्न (उत्तम पितृ पक्षवाला) नहीं होता।
२. कुलसम्पन्न, न जातिसम्पन्न – कोई घोड़ा कुलसम्पन्न होता है, किन्तु जातिसम्पन्न नहीं होता। ३. जातिसम्पन्न भी, कुलसम्पन्न भी—कोई घोड़ा जातिसम्पन्न भी होता है और कुलसम्पन्न भी होता है। ४. न जातिसम्पन्न, न कुलसम्पन्न- कोई घोड़ा न जातिसम्पन्न ही होता है और न कुलसम्पन्न ही होता है। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. जातिसम्पन्न, न कुलसम्पन्न – कोई पुरुष जातिसम्पन्न तो होता है, किन्तु कुलसम्पन्न नहीं होता। २. कुलसम्पन्न, न जातिसम्पन्न – कोई पुरुष कुलसम्पन्न तो होता है, किन्तु जातिसम्पन्न नहीं होता।। ३. जातिसम्पन्न भी, कुलसम्पन्न भी— कोई घोड़ा जातिसम्पन्न भी होता है और कुलसम्पन्न भी होता है।