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स्थानाङ्गसूत्रम्
४. खण्ड मधुरफल समान— कोई आचार्य खांड-मधुर फल समान बहुत अधिक मधुर होते हैं (४११) ।
विवेचन— जैसे आंवले से अंगूर आदि फल उत्तरोत्तर मधुर या मीठे होते हैं, उसी प्रकार आचार्यों के स्वभाव में तर-तम-भाव को लिए हुए मधुरता पाई जाती है, अतः उनके भी चार प्रकार कहे गये हैं। वैयावृत्य-सूत्र
४१२– चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा आतवेयावच्चकरे णाममेगे णो परवेयावच्चकरे, परवेयावच्चकरे णाममेगे णो आतवेयावच्चकरे, एगे आतवेयावच्चकरेवि परवेयावच्चकरेवि, एगे णो आतवेयावच्चकरे णो परवेयावच्चकरे।
पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे
१. आत्म-वैयावृत्त्यकर, न पर-वैयावृत्त्यकर— कोई पुरुष अपनी वैयावृत्त्य (सेवा-टहल) करता है, किन्तु दूसरों की वैयावृत्त्य नहीं करता।
२. पर-वैयावृत्त्यकर, न आत्म-वैयावृत्त्यकर- कोई पुरुष दूसरों की वैयावृत्त्य करता है, किन्तु अपनी वैयावृत्त्य नहीं करता।
३. आत्म-वैयावृत्त्यकर, पर-वैयावृत्त्यकर- कोई मनुष्य अपनी भी वैयावृत्त्य करता है और दूसरों की भी वैयावृत्त्य करता है।
४. न आत्म-वैयावृत्त्यकर, न पर-वैयावृत्त्यकर— कोई पुरुष न अपनी वैयावृत्त्य करता है और न दूसरों की ही वैयावृत्त्य करता है (४१२)।
विवेचनस्वार्थी मनुष्य अपनी सेवा-टहल करता है, पर दूसरों की नहीं। निःस्वार्थी मनुष्य दूसरों की सेवा करता है, अपनी नहीं। श्रावक अपनी भी सेवा करता है और दूसरों की भी सेवा करता है। आलसी, मूर्ख और पादपोगमन संथारावाला या जिनकल्पी साधु न अपनी सेवा करता है और न दूसरों की ही सेवा करता है।
४१३– चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—करेति णाममेगे वेयावच्चं णो पडिच्छइ, पडिच्छइ णाममेगे वेयावच्चं णो करेति, एगे करेतिवि वेयावच्चं पडिच्छइवि, एगे णो करेति वेयावच्चं णो पडिच्छइ।
पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. कोई पुरुष दूसरों की वैयावृत्त्य करता है, किन्तु दूसरों से अपनी वैयावृत्त्य नहीं कराता । २. कोई पुरुष दूसरों से अपनी वैयावृत्त्य कराता है, किन्तु दूसरों की नहीं करता। ३.कोई पुरुष दूसरों की भी वैयावृत्त्य करता है और अपनी भी वैयावृत्त्य दूसरों से कराता है।
४. कोई पुरुष न दूसरों की वैयावृत्त्य करता है और न दूसरों से अपनी कराता है (४१३)। अर्थ-मान-सूत्र
४१४– चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—अट्ठकरे णाममेगे णो माणकरे, माणकरे णाममेगे णो अट्ठकरे, एगे अट्ठकरेवि माणकरेवि, एगे णो अट्ठकरे णो माणकरे।