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________________ २८६ स्थानाङ्गसूत्रम् २. कर्दमरागरक्त वस्त्र के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव काल कर तिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होता है। ३. खञ्जनरागरक्त वस्त्र के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव काल कर मनुष्यों में उत्पन्न होता है। ४. हरिद्वारागरक्त वस्त्र के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव काल कर देवों में उत्पन्न होता है (२८४)। विवेचन— प्रकृत मान, माया और लोभ पद में दिये गये दृष्टान्तों के द्वारा अनन्तानुबन्धी आदि चारों जाति के मान, माया और लोभ कषायों के स्वभावों को और उनके फल को दिखाया गया है। क्रोध कषाय की चार जातियों का निरूपण आगे इसी स्थान के तीसरे उद्देश के प्रारम्भ में किया गया है। सूत्र संख्या २८३ में संज्वलन मान का उदाहरण तिणिसलया (तिनिशलता) के खम्भे का दिया गया है। टीकाकार ने इसका अर्थ वृक्षविशेष किया है, किन्तु 'पाइअसद्दमहण्णवो' में इसका अर्थ 'वेंत' किया है और कसायपाहुडसुत्त, प्राकृत पंचसंग्रह और गोम्मटसार के जीवकाण्ड में तिनिशलता के स्थान पर 'वेत्र" पद का स्पष्ट उल्लेख है। अत: यहां भी इसका अर्थ वेंत किया गया है। अनन्तानुबन्धी लोभ का उदाहरण कृमिरागरक्त वस्त्र का दिया है। इसके विषय में दो अभिमत मिलते हैं। प्रथम अभिमत यह है कि मनुष्य का रक्त लेकर और उसमें कुछ अन्य द्रव्य मिला कर किसी वर्तन में रख देते हैं। कुछ समय के पश्चात् उसमें कीड़े पड़ जाते हैं। वे हवा में आकर लाल रंग की लार छोड़ते हैं, उस लार को एकत्र कर जो वस्त्र बनाया जाता है, उसे कृमिरागरक्त कहा जाता है। दूसरा अभिमत यह है कि किसी भी जीव के एकत्र किये गये रक्त में जो कीड़े पैदा हो जाते हैं उन्हें मसलकर कचरा फेंक दिया जाता है और कुछ दूसरी वस्तुएं मिलाकर जो रंग बनाया जाता है उसे कृमिराग कहते हैं। किन्तु दिगम्बर शास्त्रों में 'किमिराय' का अर्थ 'किरमिजी रंग' किया गया है। उससे रंगे गये वस्त्र का रंग छूटता नहीं उपर्युक्त दि० ग्रन्थों में अप्रत्याख्यानावरण लोभ का उदाहरण चक्रमल (गाड़ी के चाक का मल) जैसे दिया गया है और प्रत्याख्यानावरण लोभ का दृष्टान्त तनु-मल (शरीर का मैल) दिया गया है। संसार-सूत्र २८५– चउव्विहे संसारे पण्णत्ते, तं जहा—णेरइयसंसारे, जाव (तिरिक्खजोणियसंसारे, मणुस्ससंसारे), देवसंसारे। संसार चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. नैरयिकसंसार, २. तिर्यग्योनिकसंसार, ३. मनुष्यसंसार और ४. देवसंसार (२८५)। २८६- चउव्विहे आउए पण्णत्ते, तं जहा— रइयआउए, जाव (तिरिक्खजोणियआउए, मणुस्साउए), देवाउए। १. सेलट्ठिकट्ठवेत्ते णियभेएणणुहरंतओ माणो । णारय-तिरिय-णरामरगईसुप्पायओ कमसो ॥ (गो० जीवकाण्ड गा० २८४) किमिराय चक्कतणुमलहलिद्द राएण सरिसओ लोहो। णारय-तिरिय-णरामर गईसुप्पायओ कमसो ॥ -(गो० जीवकाण्ड गा० २८६) २.
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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