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स्थानाङ्गसूत्रम्
विवेचन- उक्त तीनों सूत्रों में जिस तमस्काय का निरूपण किया गया है वह जलकाय के परिणमन-जनित अन्धकार का एक प्रचयविशेष है। इस जम्बूद्वीप से आगे असंख्यात द्वीप-समुद्र जाकर अरुणवर द्वीप आता है। उसकी बाहरी वेदिका के अन्त में अरुणवर समुद्र है। उसके भीतर ४२ हजार योजन जाने पर एक प्रदेश विस्तृत गोलाकार अन्धकार की एक श्रेणी ऊपर की ओर उठती है जो १७२१ योजन ऊंची जाने के बाद तिर्यक् विस्तृत होती हुई सौधर्म आदि चारों देवलोकों को घेर कर पांचवें ब्रह्मलोक के रिष्ट विमान तक चली गई है। यतः उसके पुद्गल कृष्णवर्ण के हैं, अतः उसे तमस्काय कहा जाता है। प्रथम सूत्र में उसके चार नाम सामान्य अन्धकार के और दूसरे सूत्र में उसके चार नाम महान्धकार के वाचक हैं। लोक में इसके समान अत्यन्त काला कोई दूसरा अन्धकार नहीं है, इसलिए उसे लोकतम और लोकान्धकार कहते हैं। देवों के शरीर की प्रभा भी हतप्रभ हो जाती है, अत: उसे देवतम
और देवान्धकार कहते हैं । वात (पवन) भी उसमें प्रवेश नहीं पा सकता, अतः उसे वात-परिघ और वातपरिघक्षोभ कहते हैं। देवों के लिए भी वह दुर्गम है, अतः उसे देवारण्य और देवव्यूह कहा जाता है।
२७८- तमुक्काए णं चत्तारि कप्पे आवरित्ता चिट्ठति, तं जहा सोधम्मीसाणं सणंकुमारमाहिंद। तमस्काय चार कल्पों को घेर करके अवस्थित है। जैसे
१. सौधर्मकल्प, २. ईशानकल्प, ३. सनत्कुमारकल्प, ४. माहेन्द्रकल्प (२७८)। दोष-प्रतिषेवि-सूत्र
२७९- चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—संपागडपडिसेवी णाममेगे, पच्छण्णपडिसेवी णाममेगे, पडुप्पण्णणंदी णाममेगे, णिस्सरणणंदी णाममेगे।
चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं। जैसे—
१. सम्प्रकटप्रतिसेवी- कोई पुरुष प्रकट में (अगीतार्थ के समक्ष अथवा जान-बूझकर दर्प से) दोष सेवन करता है।
२. प्रच्छन्नप्रतिसेवी- कोई पुरुष छिपकर दोष सेवन करता है। ३. प्रत्युत्पन्नप्रतिनन्दी— कोई पुरुष यथालब्ध का सेवन करके आनन्दानुभव करता है।
४. निःसरणानन्दी— कोई पुरुष दूसरों के चले जाने पर (गच्छ आदि से अभ्यागत साधु या शिष्य आदि के निकल जाने पर) प्रसन्न होता है (२७९)। जय-पराजय-सूत्र
२८०- चत्तारि सेणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा—जइत्ता णाममेगा णो पराजिणित्ता, पराजिणित्ता णाममेगा णो जइत्ता, एगा जइत्तावि पराजिणित्तावि, एगा णो जइत्ता णो पराजिणित्ता।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा जइत्ता णाममेगे णो पराजिणित्ता, पराजिणित्ता णाममेगे णो जइत्ता, एगे जइत्तावि पराजिणित्तावि, एगे णो जइत्ता, णो पराजिणित्ता।
सेनाएं चार प्रकार की कही गई हैं, जैसे१. जेत्री, न पराजेत्री— कोई सेना शत्रु-सेना को जीतती है, किन्तु शत्रु-सेना से पराजित नहीं होती।