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चतुर्थ स्थान- द्वितीय उद्देश
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४. चौथे भंग में दुःषमाकाल के आचार्य आते हैं, जो न अपने संसार का ही अन्त कर पाते हैं और न दूसरे के संसार का ही अन्त कर पाते हैं।
'अन्त' शब्द का मरण अर्थ भी होता है। दूसरे प्रकार के चारों अंतों के उदाहरण इस प्रकार हैं१. जो अपना 'अन्त' अर्थात् मरण या घात करे, किन्तु दूसरे का घात न करे। २. पर-घातक, किन्तु आत्म-घातक नहीं। ३. आत्म-घातक भी और पर-घातक भी। ४. न आत्म-घातक और न पर-घातक (२)। तीसरी व्याख्या सूत्र के 'आयंतकर' का संस्कृत रूप 'आत्मतन्त्रकर' मान कर इस प्रकार की है—
१. आत्म-तन्त्रकर- अपने स्वाधीन होकर कार्य करने वाला पुरुष, किन्तु 'परतन्त्र' होकर कार्य नहीं करने वाला जैसे तीर्थंकर।
२. परतन्त्रकर, किन्तु आत्मतन्त्रकर नहीं। जैसे—साधु । ३. आत्मतन्त्रकर भी और परतन्त्रकर भी। जैसे—आचार्यादि। ४. न आत्मतन्त्रकर और न परतन्त्रकर। जैसे-शठ पुरुष । चौथी व्याख्या 'आयंतकर' का संस्कृतरूप 'आत्मायत्त-कर' मान कर इस प्रकार की है—
१. आत्मायत्त-कर, परायत्त-कर नहीं- धन आदि को अपने अधीन करने वाला, किन्तु दूसरे के अधीन नहीं करने वाला पुरुष।
२. अपने धनादि को पर के अधीन करने वाला, किन्तु अपने अधीन नहीं करने वाला पुरुष। ३. धनादि को अपने अधीन करने वाला और पर के अधीन भी करने वाला पुरुष। ४. धनादि को न स्वाधीन करने वाला और न पराधीन करने वाला पुरुष।
२६२- चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—आयंतमे णाममेगे णो परंतमे, परंतमे णाममेगे णो आयंतमे, एगे आयंतमेवि परंतमेवि, एगे णो आयंतमे णो परंतमे।
पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. आत्म-तम, किन्तु पर-तम नहीं जो अपने आपको खिन्न करे, दूसरे को नहीं। २. पर-तम, किन्तु आत्म-तम नहीं- जो पर को खिन्न करे, किन्तु अपने को नहीं। ३. आत्म-तम भी और पर-तम भी- जो अपने को भी खिन्न करे और पर को भी खिन्न करे। ४. न आत्म-तम, न पर-तम- जो न अपने को खिन्न करे और न पर को खिन्न करे (२६२)।
विवेचन संस्कृत टीकाकार ने उक्त अर्थ आत्मानं तमयति खेदयतीति आत्मतमः' निरुक्ति करके किया है। अथवा करके तम का अर्थ अज्ञान और क्रोध भी अर्थ किया है। तदनुसार चारों भंगों का अर्थ इस प्रकार है
१. जो अपने में अज्ञान या क्रोध उत्पन्न करे, पर में नहीं। २. जो पर में अज्ञान या क्रोध उत्पन्न करे, अपने में नहीं। ३. जो अपने में भी और पर में भी अज्ञान या क्रोध उत्पन्न करे।