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________________ [३१] अत: जन-मानस में भ्रान्ति न हो जाए, इस दृष्टि से आचार्य प्रवरों ने भविष्य काल के स्थान पर भूतकाल की क्रिया देकर उस समय तक घटित घटनाएं इसमें संकलित कर दी हों। इस प्रकार दो-चार घटनाएं भूतकाल की क्रिया में लिखने मात्र से प्रस्तुत आगम गणधरकृत नहीं है, इस प्रकार प्रतिपादन करना उचित नहीं है। यह संख्या - निबद्ध आगम है। इसमें सभी प्रतिपाद्य विषयों का समावेश एक से दस तक की संख्या में किया गया है। एतदर्थ ही इसके दश अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन में संग्रहनय की दृष्टि से चिन्तन किया गया है। संग्रहनय अभेद दृष्टिप्रधान | स्वजाति के विरोध के बिना समस्त पदार्थों का एकत्व में संग्रह करना अर्थात् अस्तित्वधर्म को न छोड़कर सम्पूर्ण-पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में स्थित हैं । इसलिये सम्पूर्ण पदार्थों का सामान्य रूप से ज्ञान करना संग्रहनय है। आत्मा एक है। यहाँ द्रव्यदृष्टि से एकत्व का प्रतिपादन किया गया है। जम्बूद्वीप एक है। क्षेत्र की दृष्टि से एकत्व विवक्षित है। एक समय में एक ही मन होता है। यह काल की दृष्टि से एकत्व निरूपित है। शब्द एक है। यह भाव की दृष्टि से एकत्व का प्रतिपादन है। इस तरह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से वस्तुतत्त्व पर चिन्तन किया गया है। प्रस्तुत स्थान में अनेक ऐतिहासिक तथ्यों की सूचनाएं भी हैं। जैसे—भगवान् महावीर अकेले ही परिनिर्वाण को प्राप्त हुये थे। मुख्य रूप से तो द्रव्यानुयोग और चरणकरणानुयोग से सम्बन्धित वर्णन है। प्रत्येक अध्ययन की एक ही संख्या के लिए स्थान शब्द व्यवहृत हुआ है। आचार्य अभयदेव ने स्थान के साथ अध्ययन भी कहा है ।" अन्य अध्ययनों की अपेक्षा आकार की दृष्टि से यह अध्ययन छोटा है। बीज रूप से जिन विषयों का संकेत इस स्थान में किया गया है, उनका विस्तार अगले स्थानों में उपलब्ध है। आधार की दृष्टि से प्रथम स्थान का अपना महत्त्व है । द्वितीय स्थान में दो की संख्या से सम्बद्ध विषयों का वर्गीकरण किया गया है। इस स्थान का प्रथम सूत्र है "जदत्थि लोगे तं सव्वं दुपओआरं । " जैन दर्शन चेतन और अचेतन ये दो मूल तत्त्व मानता है। शेष सभी भेद-प्रभेद उसके अवान्तर प्रकार हैं। यों जैन दर्शन में अनेकान्तवाद को प्रमुख स्थान है। अपेक्षादृष्टि से वह द्वैतवादी भी है और अद्वैतवादी भी है। संग्रहनय की दृष्टि से अद्वैत सत्य है। चेतन में अचेतन का और अचेतन में चेतन का अत्यन्ताभाव होने से द्वैत भी सत्य है। प्रथम स्थान में अद्वैत का निरूपण है, तो द्वितीय स्थान में द्वैत का प्रतिपादन है। पहले स्थान में उद्देशक नहीं है, द्वितीय स्थान में चार उद्देशक हैं। पहले स्थान की अपेक्षा यह स्थान बड़ा है प्रस्तुत स्थान में जीव और अजीव, त्रस और स्थावर, सयोनिक और अयोनिक, आयुरहित और आयुसहित, धर्म और अधर्म, बन्ध और मोक्ष आदि विषयों की संयोजना है। भगवान् महावीर के युग में मोक्ष के सम्बन्ध में दार्शनिकों की विविध धारणाएं थीं। कितने ही विद्या से मोक्ष मानते थे और कितने ही आचरण से। जैन दर्शन अनेकान्तवादी दृष्टिकोण को लिये हुये है । उसका यह वज्र आघोष है कि न केवल विद्या से मोक्ष है और न केवल आचरण से । वह इन दोनों के समन्वित रूप को 1 मोक्ष का साधन स्वीकार करता है। भगवान् महावीर की दृष्टि से विश्व की सम्पूर्ण समस्याओं का मूल हिंसा और परिग्रह है । इनका त्याग करने पर ही बोधि की प्राप्ति होती है। इसमें प्रमाण के दो भेद बताये हैं— प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं—केवलज्ञान प्रत्यक्ष और नो- केवलज्ञान प्रत्यक्ष । इस प्रकार इसमें तत्त्व, आचार, क्षेत्र, काल, प्रभृति अनेक विषयों का निरूपण है। विविध दृष्टियों से इस स्थान का महत्त्व है। कितनी ही ऐसी बातें इस स्थान में आयी हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । तृतीय स्थान में तीन की संख्या से सम्बन्धित वर्णन है। यह चार उद्देशकों में विभक्त है। इसमें तात्त्विक विषयों पर जहाँ अनेक त्रिभंगियाँ हैं, वहाँ मनोवैज्ञानिक और साहित्यिक विषयों पर भी त्रिभंगियाँ हैं । त्रिभंगियों के माध्यम से शाश्वत सत्य का मार्मिक ढंग से उद्घाटन किया गया है। मानव के तीन प्रकार हैं। कितने ही मानव बोलने के बाद मन में अत्यन्त आह्लाद का तत्र च दशाध्ययनानि । —स्थानाङ्ग वृत्ति, पत्र ३ ९९.
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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