SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ स्थान द्वितीय उद्देश प्रतिसंलीन-अप्रतिसंलीन-सूत्र १९०- चत्तारि पडिसंलीणा पण्णत्ता, तं जहा–कोहपडिसंलीणे, माणपडिसंलीणे, मायापडिसंलीणे, लोभपडिसंलीणे। प्रतिसंलीन चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. क्रोध-प्रतिसंलीन, २. मान-प्रतिसंलीन, ३. माया-प्रतिसंलीन, ४. लोभ-प्रतिसंलीन (१९०)। १९१– चत्तारि अपडिसंलीणा पण्णत्ता, तं जहा कोहअपडिसंलीणे जाव (माणअपडिसंलीणे, मायाअपडिसंलीणे,) लोभअपडिसंलीणे। अप्रतिसंलीन चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. क्रोध-अप्रतिसंलीन, २. मान-अप्रतिसंलीन, ३. माया-अप्रतिसंलीन, ४. लोभ-अप्रतिसंलीन (१९१)। विवेचन—किसी वस्तु के प्रतिपक्ष में लीन होने को प्रतिसंलीनता कहते हैं और उस वस्तु में लीन होने को अप्रतिसंलीनता कहते हैं। प्रकृत में क्रोध आदि कषायों के उदय होने पर भी उसमें लीन न होना, अर्थात् क्रोधादि कषायों के होने वाले उदय का निरोध करना और उदय-प्राप्त क्रोधादि को विफल करना क्रोध-आदि प्रतिसंलीनता है तथा क्रोध-आदि कषायों के उदय होने पर क्रोध आदि रूप परिणति रखना क्रोध आदि अप्रतिसंलीनता है। इसी प्रकार आगे कही जाने वाली मनःप्रतिसंलीनता आदि का भी अर्थ जानना चाहिए। १९२- चत्तारि पडिसंलीणा पण्णत्ता, तं जहा—पणपडिसलीणे, वइपडिसंलीणे, कायपडिसंलीणे, इंदियपडिसंलीणे। पुनः प्रतिसंलीन चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. मनः प्रतिसंलीन, २. वाक्-प्रतीसंलीन, ३. काय-प्रतीसंलीन, ४. इन्द्रिय-प्रतिसंलीन (१९२)। १९३–चत्तारि अपडिसंलीणा पत्ता, तं जहा—मणअपडिसंलीणे, जाव (वइअपडिसंलीणे, कायअपडिसंलीणे) इंदियअपडिसंलीणे। अप्रतिसंलीन चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. मनःअप्रतिसंलीन, २. वाक्-अप्रतिसंलीन, ३. काय-अप्रतिसंलीन, ४. इन्द्रिय-अप्रतिसंलीन (१९३)। विवेचन- मन, वचन, काय की प्रवृत्ति में संलग्न नहीं होकर उसका निरोध करना मन, वचन, काय की प्रतिसंलीनता है। पांच इन्द्रियों के विषयों में संलग्न नहीं होना इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता है। मन, वचन, काय की तथा इन्द्रियों के विषय की प्रवृत्ति में संलग्न होना उनकी अप्रतिसंलीनता है। जो
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy