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चतुर्थ स्थान- प्रथम उद्देश
२३९ विस्तृत वर्णन है। इसकी पद-संख्या एक कम एक करोड़ (९९९९९९९) है।
६. सत्यप्रवादपूर्व- इसमें दश प्रकार के सत्य वचन, अनेक प्रकार के असत्य वचन, बारह प्रकार की भाषा तथा शब्दों के उच्चारण के स्थान, प्रयत्न, वाक्य-संस्कार आदि का विस्तृत विवेचन है। इसकी पद-संख्या एक करोड़ छह है।
७. आत्मप्रवादपूर्व- इसमें आत्मा के कर्तृत्व, भोक्तृत्व, अमूर्तत्व आदि अनेक धर्मों का वर्णन है। इसकी पद-संख्या छब्बीस करोड़ है।
८. कर्मप्रवादपूर्व- इसमें कर्मों की मूल-उत्तरप्रकृतियों का तथा उनकी बन्ध, उदय, सत्त्व आदि अवस्थाओं का वर्णन है। इसकी पद-संख्या एक करोड़ अस्सी लाख है।
९. प्रत्याख्यानपूर्व- इसमें नाम, स्थापनादि निक्षेपों के द्वारा अनेक प्रकार के प्रत्याख्यानों का वर्णन है। इसकी पद-संख्या चौरासी लाख है।
१०. विद्यानुवादपूर्व- इसमें अंगुष्ठ प्रसेनादि सात सौ लघुविद्याओं का और रोहिणी आदि पांच सौ महाविद्याओं के साधन-भूत मंत्र, तंत्र आदि का वर्णन है। इसकी पद-संख्या एक करोड़ दश लाख है।
११. अवन्ध्यपूर्व- इसमें तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म आदि पांच कल्याणकों का, तीर्थंकर गोत्र के उपार्जन करने वाले कारणों आदि का वर्णन है। इसकी पद-संख्या छब्बीस करोड़ है।
१२. प्राणायुपूर्व— इसमें काय-चिकित्सा आदि आयुर्वेद के आठ अंगों का, इडा, पिंगला आदि नाड़ियों का और प्राणों के उपकारक-अपकारक आदि द्रव्यों का वर्णन है। इसकी पद-संख्या एक करोड़ छप्पन लाख है।
१३. क्रियाविशालपूर्व— इसमें संगीत, छन्द, अलंकार, पुरुषों की ७२ कलाओं, स्त्रियों की ६४ कलाओं, शिल्प-विज्ञान का और नित्य नैमित्तक हर क्रियाओं का वर्णन है। इसकी पद-संख्या नौ करोड है।
१४. लोकबिन्दुसारपूर्व- इसमें लोक का स्वरूप, छत्तीस परिकर्म, आठ व्यवहार और चार बीज आदि का वर्णन है। इसकी पद-संख्या साढ़े बारह करोड़ है।
यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि सभी पूर्वो के नाम और उनके पदों की संख्या दोनों सम्प्रदायों में समान है। भेद केवल ग्यारहवें पूर्व के नाम में है। दि. शास्त्रों में उसका नाम 'कल्याणवाद' दिया गया है तथा बारहवें पूर्व की पदसंख्या तेरह करोड़ कही गई है।
दृष्टिवाद का पांचवा भेद चूलिका है। इसके पांच भेद हैं—१. जलगता, २. स्थलगता, ३. आकाशगता, ४. मायागता और ५. रूपगता। इसमें जल, स्थल और आकाश आदि में विचरण करने वाले प्रयोगों का वर्णनं है। मायागता में नाना प्रकार के इन्द्रजालादि मायामयी योगों का और रूपगता में नाना प्रकार के रूप-परिवर्तन के प्रयोगों का वर्णन है।
पूर्वगत श्रुत विच्छिन्न हो गया है, अतएव किस पूर्व में क्या-क्या वर्णन था, इसके विषय में कहीं कुछ भिन्नता भी संभव है। प्रायश्चित्त-सूत्र
१३२– चउविहे पायच्छित्ते, पण्णत्ते, तं जहा—णाणपायच्छित्ते, दंसणपायच्छित्ते, चरित्तपायच्छित्ते, वियत्तकिच्चपायच्छित्ते।