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चतुर्थ स्थान प्रथम उद्देश
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अनुपशान्त क्रोध कहलाता है। इसी प्रकार आगे कहे जाने वाले चारों प्रकार के मान, माया और लोभ का अर्थ जानना चाहिए।
८९- चउव्विधे माणे पण्णत्ते, तं जहा—आभोगणिव्वत्तिते, अणाभोगणिव्वत्तिते, उवसंते, अणुवसंते। एवं–णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं।
मान चार प्रकार का कहा गया है। जैसे१. आभोगनिर्वर्तित मान— बुद्धिपूर्वक किया गया मान । २. अनाभोगनिर्वर्तित मान— अबुद्धिपूर्वक किया गया मान।
पशान्त मान - उदय को अप्राप्त, किन्तु सत्ता में स्थित मान। ४. अनुपशान्त मान— उदय को प्राप्त मान । यह चारों प्रकार का मान नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में पाया जाता है (८९)।
९०- चउव्विधे माया पण्णत्ता, तं जहा आभोगणिव्वत्तिता, अणाभोगणिव्वत्तिता, उवसंता, अणुवसंता। एवं —णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं।
माया चार प्रकार की कही गई है। जैसे१. आभोगनिर्वर्तित माया— बुद्धिपूर्वक की गई माया। २. अनाभोगनिर्वर्तित माया— अबुद्धिपूर्वक की गई माया। ३. उपशान्त माया— उदय को अप्राप्त, किन्तु सत्ता में स्थित माया। ४. अनुपशान्त माया- उदय को प्राप्त माया। यह चारों प्रकार की माया नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में पाई जाती है (९०)।
९१- चउव्विधे लोभे पण्णत्ते, तं जहा—आभोगणिव्वत्तिते, अणाभोगणिव्वत्तिते, उवसंते, अणुवसंते। एवं –णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं।
लोभ चार प्रकार का कहा गया है। जैसे१. आभोगनिर्वर्तित — बुद्धिपूर्वक किया गया लोभ । २. अनाभोगनिर्वर्तित — अबुद्धिपूर्वक किया गया लोभ। ३. उपशान्त लोभ- उदय को अप्राप्त, किन्तु सत्ता में स्थित लोभ।
४. अनुपशान्त लोभ- उदय को प्राप्त लोभ (९१)। कर्म-प्रकृति-सूत्र
९२- जीवा णं चउहिं ठाणेहिं अट्ठकम्मपगडीओ चिणिंसु, तं जहा—कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं। एवं जाव वेमाणियाणं।
एवं चिणंति एस दंडओ, एवं चिणिस्संति एस दंडओ, एवमेतेणं तिण्णि दंडगा। जीवों ने चार कारणों से आठों कर्मप्रकृतियों का भूतकाल में संचय किया है। जैसे