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________________ २२६ स्थानाङ्गसूत्रम् पच्चक्खाणावरणे माणे, संजलणे माणे। एवं—णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। मान चार प्रकार का कहा गया है। जैसे१. अनन्तानुबन्धी मान, २. अप्रत्याख्यानकषाय मान, ३. प्रत्याख्यानावरण मान, ४. संज्वलन मान। यह चारों प्रकार का मान नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में पाया जाता है (८५)। ८६- चउव्विधे माया पण्णत्ते, तं जहा—अणंताणुबंधी माया, अपच्चक्खाणकसाए माया, पच्चक्खाणावरणे माया, संजलणे माया। एवं—णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। माया चार प्रकार की कही गई है। जैसे११. अनन्तानुबन्धी माया, २. अप्रत्याख्यानकषाय माया, ३. प्रत्याख्यानावरण माया, ४. संज्वलन माया। यह चारों प्रकार की माया नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में पाया जाता है (८६)। ८७- चउब्विधे लोभे पण्णत्ते, तं जहा—अणंताणुबंधी लोभे, अपच्चक्खाणकसाए लोभे, पच्चक्खाणावरणे लोभे, संजलणे लोभे। एवं–णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। लोभ चार प्रकार का कहा गया है। जैसे१. अनन्तानुबन्धी लोभ, २. अप्रत्याख्यानकषाय लोभ, ३. प्रत्याख्यानावरण लोभ, ४. संज्वलन लोभ । यह चारों प्रकार का लोभ नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में पाया जाता है (८७)। ८८- चउव्विधे कोहे पण्णत्ते, तं जहा—आभोगणिव्वत्तिते, अणाभोगणिव्वत्तिते, उवसंते, अणुवसंते। एवं–णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। पुनः क्रोध चार प्रकार का कहा गया है। जैसे१. आभोगनिर्वर्तित क्रोध, २. अनाभोगनिवर्तित क्रोध, . ३. उपशान्त क्रोध, ४. अनुपशान्त क्रोध। यह चारों प्रकार का क्रोध नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में पाया जाता है (८८)। विवेचन- बुद्धिपूर्वक किये गये क्रोध को आभोग-निर्वर्तित और अबुद्धिपूर्वक होने वाले क्रोध को अनाभोग-निर्वर्तित कहा जाता है। यह साधारण व्याख्या है। संस्कत टीकाकार अभयदेवसरि ने आभोग का अर्थ ज्ञान किया है। जो व्यक्ति क्रोध के दुष्फल को जानते हुए भी क्रोध करता है, उसके क्रोध को आभोगनिर्वर्तित कहा है। मलयगिरिसूरि ने प्रज्ञापनासूत्र की टीका में इसकी व्याख्या भिन्न प्रकार से की है। वे लिखते हैं कि जब मनुष्य दूसरे के द्वारा किये गये अपराध को भली-भांति से जान लेता है और विचारता है कि अपराधी व्यक्ति सीधी तरह से नहीं मानेगा, इसे अच्छी तरह सीख देना चाहिए। ऐसा विचार कर रोष-युक्त मुद्रा से उस पर क्रोध करता है, तब उसे आभोगनिर्वर्तित क्रोध कहते हैं। क्रोध के गुण-दोष का विचार किये बिना सहसा उत्पन्न हुए क्रोध को अनाभोगनिर्वर्तित कहते हैं। उदय को नहीं प्राप्त, किन्तु सत्ता में अवस्थित क्रोध को उपशान्त क्रोध कहते हैं। उदय को प्राप्त क्रोध
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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