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________________ चतुर्थ स्थान–प्रथम उद्देश १९९ उसके न तो उस प्रकार का घोर तप होता है और न उस प्रकार की घोर वेदना होती है। इस प्रकार का पुरुष दीर्घ-कालिक साधु-पर्याय के द्वारा सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परि-निर्वाण को प्राप्त होता है और सर्व दुःखों का अन्त करता है। जैसे कि चातुरन्त चक्रवर्ती भरत राजा हुआ। यह प्रथम अन्तक्रिया है। २. दूसरी अन्तक्रिया इस प्रकार है- कोई पुरुष बहुत-भारी कर्मों के साथ मनुष्य-भव को प्राप्त हुआ। पुनः वह मुण्डित होकर, घर त्याग कर, अनगारिता को धारण कर प्रव्रजित हो, संयम-बहुल, संवर-बहुल और (समाधि-बहुल होकर रूक्ष भोजन करता हुआ तीर का अर्थी) उपधान करने वाला, दुःख को खपाने वाला तपस्वी होता है। उसके विशेष प्रकार का घोर तप होता है और विशेष प्रकार की घोर वेदना होती है। इस प्रकार का पुरुष अल्पकालिक साधु-पर्याय के द्वारा सिद्ध होता है, (बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और सर्व दुःखों का) अन्त करता है। जैसे कि गजसुकुमार अनगार। यह दूसरी अन्तक्रिया है। ३. तीसरी अन्तक्रिया इस प्रकार है- कोई पुरुष बहुत कर्मों के साथ मनुष्य-भव को प्राप्त हुआ। पुनः वह मुण्डित होकर, घर त्याग कर; अनगारिता को धारण कर प्रव्रजित हो (संयम-बहुल, संवर-बहुल और समाधिबहुल होकर रूक्ष भोजन करता हुआ तीर का अर्थी) उपधान करने वाला, दुःख को खपाने वाला तपस्वी होता है। उसके उस प्रकार का घोर तप होता है, और उस प्रकार की घोर वेदना होती है। इस प्रकार का पुरुष दीर्घकालिक साधु-पर्याय के द्वारा सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है] और सर्व दुःखों का अन्त करता है। जैसे कि चातुरन्त चक्रवर्ती सनत्कुमार राजा। यह तीसरी अन्तक्रिया है। ४. चौथी अन्तक्रिया इस प्रकार है— कोई पुरुष अल्प कर्मों के साथ मनुष्य-भव को प्राप्त हुआ। पुनः वह मुण्डित होकर [घर त्याग कर, अनगारिता को धारण कर] प्रव्रजित हो संयम-बहुल, (संवर-बहुल और समाधिबहुल होकर रूक्ष भोजन करता हुआ) तीर का अर्थी, उपधान करने वाला, दुःख को खपाने वाला तपस्वी होता है। उसके न उस प्रकार का घोर तप होता है और न उस प्रकार की घोर वेदना होती है। इस प्रकार का परुष अल्पकालिक साधु-पर्याय के द्वारा सिद्ध होता है, [बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और सर्व दुःखों का अन्त करता है। जैसे कि भगवती मरुदेवी। यह चौथी अन्तक्रिया है (१)। विवेचनजन्म-मरण की परम्परा का अन्त करने वाली और सर्व कर्मों का क्षय करने वाली योग-निरोध क्रिया को अन्तक्रिया कहते हैं । उपर्युक्त चारों क्रियाओं में पहली अन्तक्रिया अल्पकर्म के साथ आये तथा दीर्घकाल तक साधु-पर्याय पालने वाले पुरुष की कही गई है। दूसरी अन्तक्रिया भारी कर्मों के साथ आये तथा अल्पकाल साधु-पर्याय पालने वाले व्यक्ति की कही गई है। तीसरी अन्तक्रिया गुरुतर कर्मों के साथ आये और दीर्घकाल तक साधु-पर्याय पालने वाले पुरुष की कही गई है। चौथी अन्तक्रिया अल्पकर्म के साथ आये और अल्पकाल साधुपर्याय पालने वाले व्यक्ति की कही गई है। जितने भी व्यक्ति आज तक कर्म-मुक्त होकर सिद्ध बुद्ध हुए हैं और आगे होंगे, वे सब उक्त चार प्रकार की अन्तक्रियाओं में से कोई एक अन्तक्रिया करके ही मुक्त हुए हैं और आगे होंगे। भरत, गजसुकुमाल, सनत्कुमार चक्रवर्ती और मरुदेवी के कथानक कथानुयोग से जानना चाहिए। उन्नत-प्रणत-सूत्र २- चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा—उण्णते णाममेगे उण्णते, उण्णते णामेगे पणते,
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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