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स्थानाङ्गंसूत्रम्
उत्पन्न हो जाते हैं, क्योंकि सभी त्रस जीव त्रसनाडी के भीतर ही उत्पन्न होते और मरते हैं। किन्तु स्थावर एकेन्द्रिय जीव त्रसनाडी से बाहर भी समस्त लोकाकाश में कहीं से भी मर कर कहीं भी उत्पन्न हो सकते हैं। अतः जब कोई एकेन्द्रिय जीव निष्कुट (लोक का कोणप्रदेश) क्षेत्र से मर निष्कुट क्षेत्र में उत्पन्न होता है, तब उसे तीन मोड़ लेने पड़ते हैं और उसमें चार समय लगते हैं। अतः 'एकेन्द्रिय को छोड़कर' ऐसा सूत्र में कहा गया है। क्षीणमोह-सूत्र
५२७– खीणमोहस्स णं अरहओ तओ कम्मंसा जुगवं खिज्जंति, तं जहा—णाणावरणिजं, दंसणावरणिजं, अंतराइयं।
क्षीणमोहवाले अर्हन्त के तीन सत्कर्म (सत्ता रूप में विद्यमान कर्म) एक साथ नष्ट होते हैं ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म (५२७)। नक्षत्र-सूत्र
· ५२८– अभिईणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते। ५२९ – एवं—सवणे अस्सिणी, भरणी, मगसिरे, पूसे, जेट्टा। ____ अभिजित नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है, इसी प्रकार श्रवण, अश्विनी, भरणी, मृगशिर पुष्य और ज्येष्ठा भी तीन-तीन तारा वाले कहे गये हैं (५२८-५२९)। तीर्थंकर-सूत्र
५३०– धम्माओ णं अरहाओ संती अरहा तिहिं सागरोवमेहिं तिचउब्भागपलिओवमऊणएहिं वीतिक्कंतेहिं समुप्पण्णे।
धर्मनाथ तीर्थंकर के पश्चात् शान्तिनाथ तीर्थंकर त्रि-चतुर्भाग (३/४) पल्योपम-न्यून तीन सागरोपमों के व्यतीत होने पर समुत्पन्न हुए (५३०)।
५३१- समणस्स णं भगवओ महावीरस्स जाव तच्चाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकरभूमी।
श्रमण भगवान् महावीर के पश्चात् तीसरे पुरुषयुग जम्बूस्वामी तक युगान्तकर भूमि रही है, अर्थात् निर्वाणगमन का क्रम चलता रहा है (५३१)।
५३२- मल्ली णं अरहा तिहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता [अगाराओ अणगारियं] पव्वइए। मल्ली अर्हत् तीन सौ पुरुषों के साथ मुण्डित होकर (अगार से अनगार धर्म में) प्रव्रजित हुए (५३२)। ५३३ - [पासे णं अरहा तिहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए]। (पार्श्व अर्हत् तीन सौ 'पुरुषों के साथ मुण्डित होकर अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित हुए (५३३)।
५३४— समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तिण्णि सया चउद्दसपुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसण्णिवातीणं जिणा [जिणाणं ?] इव अवितहं वागरमाणाणं उक्कोसिया चउद्दसपुब्वि