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स्थानाङ्गसूत्रम्
के दो अर्थ होते हैं—समाधिमरण और अपुनर्मरण। जिस व्यक्ति के कर्मों की महानिर्जरा होती है, वह समाधिमरण को प्राप्त हो या तो कर्म-मुक्त होकर अपुनर्मरण को प्राप्त होता है, अर्थात् जन्म-मरण के चक्र से छूट कर सिद्ध हो जाता है अथवा उत्तम जाति के देवों में उत्पन्न होकर फिर क्रम से मोक्ष प्राप्त करता है।
उक्त दो सूत्रों में से प्रथम सूत्र में जो तीन कारण महानिर्जरा और महापर्यवसान के बताये गये हैं वे श्रमण (साधु) की अपेक्षा से और दूसरे सूत्र में श्रमणोपासक (श्रावक) की अपेक्षा से कहे गये हैं। उन तीन कारणों में मारणान्तिक संलेखना कारण दोनों के समान हैं। श्रमणोपासक का दूसरा कारण घर त्याग कर साध बनने की भावना रूप है तथा श्रमण का दूसरा कारण एकल विहार (प्रतिमा धारण) की भावना वाला है।
एकल विहार प्रतिमा का अर्थ है—अकेला रहकर आत्म-साधना करना। भगवान् ने तीन स्थितियों में अकेले विचरने की अनुज्ञा दी है
१. एकाकीविहार प्रतिमा-स्वीकार करने पर। २. जिनकल्प-प्रतिमा स्वीकार करने पर। ३. मासिक आदि भिक्षु-प्रतिमाएं स्वीकार करने पर।
एकाकीविहार प्रतिमा वाले के लिए १. श्रद्धावान्, २. सत्यवादी, ३. मेधावी, ४. बहुश्रुत, ५. शक्तिमान्, ६. अल्पाधिकरण, ७. धृतिमान् और ८. वीर्यसम्पन्न होना आवश्यक है। इन आठों गुणों का विवेचन आठवें स्थान के प्रथम सूत्र की व्याख्या में किया जायेगा। पुद्गल-प्रतिघात-सूत्र
__ ४९८- तिविहे पोग्गलपडिघाते पण्णत्ते, तं जहा परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलं पप्प पडिहण्णिजा, लुक्खत्ताए वा पडिहण्णिजा, लोगते वा पडिहणिज्जा।
तीन कारणों से पुद्गलों का प्रतिघात (गति-स्खलन) कहा गया है— १. एक पुद्गल-परमाणु दूसरे पुद्गल-परमाणु से टकरा कर प्रतिघात को प्राप्त होता है। २. अथवा रूक्षरूप से परिणत होकर प्रतिघात को प्राप्त होता है।
३. अथवा लोकान्त में जाकर प्रतिघात को प्राप्त होता है क्योंकि आगे गतिसहायक धर्मास्तिकाय का अभाव है (४९८)। चक्षुः-सूत्र
४९९– तिविहे चक्खू पण्णत्ते, तं जहा—एगचक्खू, बिचक्खू, तिचक्खू।
छउमत्थे णं मणुस्से एगचक्खू, देवे बिचक्खू, तहारूवे समणे वा माहणे वा उप्पणणाणदसणधरे तिचक्खुत्ति वत्तव्वं सिया।
चक्षुष्मान् (नेत्रवाले) तीन प्रकार के कहे गये हैं—एकचक्षु, द्विचक्षु और त्रिचक्षु । १. छद्मस्थ (अल्पज्ञानी बारहवें गुणस्थान तक का) मनुष्य एक चक्षु होता है। २. देव द्विचक्षु होता है, क्योंकि उसके द्रव्य नेत्र के साथ अवधिज्ञान रूप दूसरा भी नेत्र होता है।