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________________ [२२] द्वितीय भद्रबाहु के साथ है। क्योंकि प्रथम भद्रबाहु का स्वर्गवासकाल वीर निर्वाण एक सौ सत्तर (१७०) के लगभग है। एक सौ पचास वर्षीय नन्द साम्राज्य का उच्छेद और मौर्य शासन का प्रारम्भ वीर-निर्वाण दो सौ दस के आस-पास है। द्वितीय भद्रबाहु के साथ चन्द्रगुप्त अवन्ती का था, पाटलिपुत्र का नहीं। आचार्य देवसेन ने चन्द्रगुप्त की दीक्षा देने वाले भद्रबाहु के लिए श्रुतकेवली विशेषण नहीं दिया है किन्तु निमित्तज्ञानी विशेषण दिया है ।२ श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भी वे निमित्तवेत्ता थे। सम्राट चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्नों का फलादेश बताने वाले भद्रबाहु ही होने चाहिए। मौर्यशासक चन्द्रगुप्त और अवन्ती के शासक चन्द्रगुप्त और दोनों भद्रबाहु की जीवन घटनाओं में एक सदृश नाम होने से संक्रमण हो गया है। दिगम्बर परम्परा का अभिमत है कि दोनों भद्रबाहु समकालीन थे। एक भद्रबाहु ने नेपाल में महाप्राण नामक ध्यानसाधना की तो दूसरे भद्रबाहु ने राजा चन्द्रगुप्त के साथ दक्षिण भारत की यात्रा की। पर इस कथन के पीछे परिपुष्ट ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। हम पूर्व में बता चुके हैं कि दुष्काल की विकट-वेला में भद्रबाहु विशाल श्रमण संघ के साथ बंगाल में समुद्र के किनारे रहे ३ संभव है उसी प्रदेश में उन्होंने छेदसूत्रों की रचना की हो। उसके पश्चात् महाप्राणायाम की ध्यान-साधना के लिए नेपाल पहुंचे हों और दुष्काल के पूर्ण होने पर भी वे नेपाल में ही रहे हों। डाक्टर हर्मन जेकॉबी ने भी भद्रबाहु के नेपाल जाने की घटना का समर्थन किया है। तित्थोगालिय के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि पाटलिपुत्र में अंग-साहित्य की वाचना हुई थी। वहां अंगबाह्य आगमों की वाचना के सम्बन्ध में कुछ भी निर्देश नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि अंगबाह्य आगम उस समय नहीं थे। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार अंगबाह्य आगमों की रचनाएं पाटलिपुत्र की वाचना के पहले ही हो चुकी थीं। क्योंकि वीर-निर्वाण (६४) चौसठ में शय्यम्भव जैन श्रमण बने थे और वीर-निर्वाण ७५ में वे आचार्य पद से अलंकृत हुए थे। उन्होंने अपने पुत्र अल्पायुष्य मुनि मणक के लिए आत्मप्रवाद से दशवैकालिक सूत्र का नि!हण किया। वीर-निर्वाण के ८० वर्ष बाद इस महत्त्वपूर्ण सूत्र की रचना हुई थी। स्वयं भद्रबाहु ने भी छेदसूत्रों की रचनाएं की थीं, उस समय विद्यमान थे। पर इन ग्रन्थों की वाचना के सम्बन्ध में कोई संकेत नहीं है। पण्डित श्री दलसुख मालवणिया का अभिमत है कि आगम या श्रुत उस युग में अंग-ग्रन्थों तक ही सीमित था। बाद में चलकर श्रुतसाहित्य का विस्तार हुआ और आचार्यकृत क्रमश: आगम की कोटि की रखा गया ५ पाटलिपुत्र की वाचना के सम्बन्ध में दिगम्बर प्राचीन साहित्य में कहीं उल्लेख नहीं है। यद्यपि दोनों ही परम्पराएं भद्रबाहु को अपना आराध्य मानती हैं। आचार्य भद्रबाहु के शासनकाल में दो विभिन्न दिशाओं में बढ़ती हुई श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के आचार्यों की नामशृङ्खला एक केन्द्र पर आ पहुंची थी। अब पुनः वह शृङ्खला विशृङ्खलित हो गयी थी। द्वितीय वाचना आगमसंकलन का द्वितीय प्रयास वीर-निर्वाण ३०० से ३३० के बीच हुआ। सम्राट खारवेल उड़ीसा प्रान्त के महाप्रतापी शासक थे। उनका अपर नाम "महामेघवाहन" था। इन्होंने अपने समय में एक बृहद् जैन सम्मेलन का आयोजन किया था, जिसमें अनेक जैन भिक्षु, आचार्य, विद्वान तथा विशिष्ट उपासक सम्मिलित हुए थे। सम्राट खारवेल को उनके कार्यों की प्रशस्ति के रूप में "धम्मराज", "भिक्खुराज","खेमराज"जैसे विशिष्ट शब्दों से सम्बोधित किया गया है। हाथीं गुफा ५२. आसि उजेणीणयरे, आयरियो भद्दबाहुणामेण । जाणियं सुणिमित्तधरो, भणियो संघो णियो तेण ॥ -भावसंग्रह ५३. इतश्च तस्मिन् दुष्काले-कराले कालरात्रिवत् । निर्वाहार्थं साधुसंघस्तीरं नीरनिधेर्ययौ ॥ -परिशिष्ट पर्व, सर्ग ९, श्लोक ५५ ५४. सिद्धान्तसारमुद्धृत्याचार्यः शय्यम्भवस्तदा । दशवैकालिकं नाम, श्रुतस्कन्धमुदाहरत् ॥ –परिशिष्ट पर्व, सर्ग ५, श्लोक ८५ ५५. (क) जैन दर्शन का आदिकाल-पं. दलसुख मालवणिया, पृष्ठ ६ (ख) आगम युग का जैन दर्शन-पृष्ठ २७
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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