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________________ १८२ करते हुए किसी भी समय किसी भी जीव को पीड़ा नहीं पहुंचती है।" ५. जिनकल्पस्थिति—— दीर्घकाल तक संघ में रह कर संयम साधना करने के पश्चात् जो साधु और भी अधिक संयम की साधना करने के लिए गण, गच्छ आदि से निकल कर एकाकी विचरते हुए एकान्तवास करते हैं उनकी आचार-मर्यादा को जिनकल्पस्थिति कहते हैं। वे प्रतिदिन आयंबिल करते हैं, दश गुण वाले स्थंडिल भूमि में उच्चार-प्रस्रवण करते हैं, तीसरे प्रहर में भिक्षा लेते हैं, मासकल्प विहार करते हैं तथा एक गली में छह दिनों से पहिले भिक्षा के लिए नहीं जाते हैं। वे वज्रर्षभनाराच संहनन के धारक और सभी प्रकार के घोरातिघोर उपसर्गों को सहन करने के सामर्थ्य वाले होते हैं। ६. स्थविरकल्पस्थिति— जो आचार्यादि के गण-गच्छ से प्रतिबद्ध रह कर संयम की साधना करते हैं, ऐसे साधुओं की आचार-मर्यादा स्थविरकल्पस्थिति कहलाती है। स्थविरकल्पी साधु पठन-पाठन, शिक्षा, दीक्षा और व्रत ग्रहण आदि कार्यों में संलग्न रहते हैं, अनियत वासी होते हैं तथा साधु समाचारी का सम्यक् प्रकार से परिपालन करते हैं। स्थानाङ्गसूत्रम् यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि स्थविरकल्पस्थिति में सामायिक चारित्र का पालन करते हुए छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है। उसके सम्पन्न होने पर परिहारविशुद्धिचारित्र के भेद रूप निर्विशमान और तदनन्तर निर्विष्टकायिक संयम की साधना की जाती है और अन्त में जिनकल्पस्थिति की योग्यता होने पर उसे अंगीकार किया जाता है। शरीर-सूत्र ४८३ – रइयाणं तओ सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा वेडव्विए, तेयए, कम्मए । ४८४—– असुरकुमाराणं तओ सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा—वेडव्विए, तेयए, कम्मए । ४८५ एवं सव्वेसिं देवाणं । ४८६ — पुढविकाइयाणं तओ सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा ओरालिए, तेयए, कम्मए । ४८७ एवं वाउकाइयवज्जाणं जाव चउरिंदियाणं । नारक जीवों के तीन शरीर कहे गये हैं— वैक्रिय शरीर (नाना प्रकार की विक्रिया करने में समर्थ शरीर), तैजस शरीर (तैजस वर्गणाओं से निर्मित सूक्ष्म शरीर) और कार्मण शरीर (कर्म वर्गणात्मक सूक्ष्म शरीर) (४८३) । १. परिहारप्रधानः शुद्धिसंयतः परिहारशुद्धिसंयतः । त्रिंशद्वर्षाणि यथेच्छया भोगमनुभूय सामान्यरूपेण विशेषरूपेण वा संयममादाय द्रव्य-क्षेत्र-काल- भावगत - परिमितापरिमितप्रत्याख्यान - प्रतिपादक प्रत्याख्यानपूर्णमहार्णवं समधिगम्य व्यपगतसकलसंशयस्तपोविशेषात् समुत्पन्नपरिहारर्द्धिस्तीर्थंकरपादमूले परिहारसंयममादत्ते। एयमादाय स्थान-गमन-चङ्क्रमणाशनपानासनादिषु व्यापारेष्वशेषप्राणिपरिहरणदक्षः परिहारशुद्धिसंयतो भवति । - धवला टीका पुस्तक १, पृ. ३७० - ३७१ तीसं वासो जम्मे वासपुधत्तं च तित्थयरमूले। पच्चक्खाणं पढिदो संझणदुगाउयविहारो ॥ परिहारर्द्धिसमेतो जीवो षद्कायसंकुले विहरन् । पयसेव पद्मपत्रं न लिप्यते पापनिवहेन ॥ — गो. जीवकांड, गाथा ४७२ गो. जीवकांड, जीवप्रबोधिका टीका उद्धृत
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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